विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 43
धृतराष्ट्र ने फिर एक कटीला प्रश्न पूछा, “जो ऋक, यजु या साम वेदों को पढ़ता हुआ पाप भी करता है, उसे पाप लगता है या नहीं?” सनत्सुजात का उत्तर और भी खरा है, “न साम, न ऋक, न यजु, कोई भी पाप से रक्षा नहीं कर सकता, मैं तुमसे मिथ्या नहीं कहताः त्रायन्ते कर्मणः पापन् न ते मिथ्या ब्रावीम्यहम्।।[1] “जो मायावी छल-कपट में लीन है, उसे वेद पाप से नहीं तारते। पंख निकलने पर जैसे पक्षी घोंसला छोड़ जाते हैं, ऐसे ही अन्तकाल में उसे वेद छोड़ जाते हैं।” उत्तर सुनकर धृतराष्ट्र कुछ विचलित हुए और उन्होंने अधिक साहस के साथ कहा, “यदि वेद वेदविद को नहीं बचा सकते तो ब्राह्मणों का यह सनातन प्रलाप क्यों होता आया है?” उत्तर मे सनत्सुजात ने वेदों के सुग्गा-पाठ और तपोमय सत्यपरायण जीवन इन दोनों के तारत्मय पर ध्यान दिलाया। यहाँ उस समय के विद्वानों को तीन वर्गों में बांटा गया है। पहले वे हैं, जो बहुपाठी अर्थात पदक्रम, जटा, घन आदि की रीति से वेदों को कंठ रखते थे, उन्हें छन्दोविद कहा जाता था। दूसरी कोटि में वे विद्वान थे, जो वेदवेदिता कहलाते थे, अर्थात षडंग वेद का जो अर्थ सहित अध्ययन-अध्यापन करते थे। वे शुष्क छन्दविदों से कुछ अच्छे थे। किन्तु उनसे भी बढ़कर तीसरी कोटि के वे विद्वान थे, जिन्हें वेद्यवित कहा जाता था, अर्थात जानने योग्य जो परम तत्त्व है, उसे वे जानते थे। छन्दोवित, वेदवित, और वेद्यवित इन तीनों में अन्तिम वेद्यवित ही श्रेष्ठ है। जो केवल वेद जानता है वह वैद्य (जानने योग्य) को नहीं जानता। पर जिसने सत्य का आश्रय लिया है, वह जानने योग्य को भी जान लेता हैः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योग 43।2
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज