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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
उद्योग पर्व
अध्याय : 9-18
यह यूनानी ओरेकिल के ढंग की कोई प्रश्न बूझने वाली देवी थी। कहा गया है कि इन्द्र अणु मात्र शरीर से कमल नाल के भीतर छिपे थे। वस्तुतः यह वैदिक पुष्कर पर्ण का ही प्रतीक है। अग्नि द्वारा जलों के मन्थन से सर्वप्रथम एक केन्द्र उत्पन्न हुआ जिसके आश्रय से गति तत्त्व का स्पन्दन आरम्भ हुआ और केन्द्र को परिधि या सीमा भाव के अन्दर आना पड़ा। इसी सीमा भाव को वैदिक भाषा में पुर कहा जाता है। पुर समूह के निर्माता तत्त्व को ही देश पुष्कर कहते हैं। पुष्कर जल की भी संज्ञा है। उस पुष्कर के एक देश में ऊपर तैरता हुआ प्राण का आधार ही पुष्करपर्ण कहा गया है। वस्तुतः सबसे अन्त में कथाकर की दृष्टि उसी अग्नि तत्त्व की ओर जाती है जिसकी व्याख्या ऊपर की गई है। उसके विषय में कहा गया है कि जो इन्द्र है वही अग्नि है। अतएव महायज्ञों में इन्द्र और अग्नि दोनों को एक ही ऐन्द्राग्न्य आहुति दी जाती है। अद्भयः अग्निः[1]- जलों से आग्नेय तत्त्व का प्रादुर्भाव यही सृष्टि का मूल सूत्र है जिसे वेदों में अनेक प्रकार से कहा गया है। यहाँ भी अग्नि की सुन्दर प्रशस्ति दी गई है - ‘हे अग्नि, तुम देवों के मुख हो। तुम सबके भीतर गूढ़ रहते हुए साक्षी हो। मंत्रद्रष्टा कवि तुम्हें कहते हैं।[2] तुम्हीं सृष्टि के लिए त्रिविध हो जाते हो। तुम इस जगत को छोड़ दो तो इसका स्वरूप नहीं रह सकता। तुम्ही हव्यवाह और हव्य हो। तुम्हीं अन्नाद और अन्न हों बड़े-बड़े सत्र, सोमयज्ञ और यज्ञों में तुम्हारा ही यजन होता है। तुम्ही भुवनों के जन्मदाता और तुम्हीं उनकी प्रतिष्ठा हो। तुम्हीं तीन लोकों को उत्पन्न कर समय आने पर अपने ताप से उन्हें भून डालते हो। मेघ और विद्युत तुम्हारे रूप हैं। संवत्सर तुमसे ही जन्म लेता है। सोम के धरातल पर तुम्हारी प्रतिष्ठा ही ऋतुएं या संवत्सर हैं। शीत के धरातल पर तुम्हारा क्रम से बसना या संचय ही वसंत है। उसी प्रकार शेष ऋतुएं तुम्हारे तापक्रम से ही निष्पन्न होती हैं। हे अग्नि, तुम अपने तेज से जलों में प्रविष्ट हो और यदि इसमें कहीं इन्द्र छिपा है तो उसे ढूंढ लाओ। अग्नि ने ऐसा ही किया और पद्मनाल या बिसतन्तु या पुष्करपर्ण के मध्य में अणुरूप से प्रविष्ट इन्द्र प्राण को ढूंढ़ लिया। इन्द्र-वृत्र का यह महान उपाख्यान शल्य के मुख में रखकर कथाकर ने उसे बड़ाई ही दी है। वैसे तो शल्य बिल्कुल बुद्धिहीन था। महाभारत के पात्रों में ऐसा निर्बुद्ध शायद ही कोई हो। रास्ते में बनाए हुए ठहरने के मण्डपों को देखकर वह शिल्पियों को इनाम देना चाहता था; किन्तु बिना सोचे-विचारे दुर्योधन को ही अपनी सहायता का वचन दे बैठा और स्वयं ही अपनी यह लीला कहने के लिए पाण्डवों के पास पहुँच गया। युधिष्ठिर भी शल्य के चरित्र की नस पहचानते थे। इसलिए उनसे कर्ण की तेजोहानिरूपी अनुचित काम करने की प्रार्थना का साहस युधिष्ठिर ने किया, “हे मामा, करने योग्य तो नहीं है, फिर भी हमारे लिए इतना तो कर ही देना”: अकर्त्तव्यमपि ह्मेतत् कर्त्तुमर्हसि मातुल।।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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