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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
4. विराट पर्व
अध्याय : 37-45
42. गोग्रहण
वस्तुतः कृपाचार्य का इस तरह कहना जहाँ कर्ण के लिए था, वहाँ उससे भी अधिक दुर्योधन पर चोट थी। वनवास का दुःख भोगे हुए पाण्डवों के प्रति बड़े-बूढ़ों के मन में करुणा का भाव स्वाभाविक था। वे यह भी सोचते होंगे कि अब पाण्डवों को न्याय मिलना चाहिए था। उलटे अर्जुन के साथ युद्ध का प्रसंग आया देख उनका क्षोभ स्वभाविक था। बात बढ़ते देख भीष्म ने कहा, ‘‘द्रोण का मत ठीक है, और कृपाचार्य ने भी ठीक ही सोचा है। कर्ण भी क्षात्र धर्म के अनुरोध से युद्ध चाहता है, पर जानबूझकर आचार्य पर कटाक्ष न करना चाहिए। देशकाल सोचकर युद्ध की बात करना ठीक है। जिसके सूर्य-जैसे तेजस्वी पाँच वैरी हों, उनकी बढ़ती से वह कैसे विचलित न हो जाय? अच्छे धर्मात्मा भी स्वार्थ के कारण डिग जाते हैं। इसलिए हे दुर्योधन, यदि तुम्हें रुचे तो एक बात कहता हूँ। कर्ण ने हम सबमें उत्साह भड़ने के लिए जो कहा, उसे आचार्य-पुत्र क्षमा करें। यह विरोध का समय नहीं। आचार्य में ब्राह्मणत्त्व और ब्रह्मास्त्र दोनों ही एक साथ इस प्रकार हैं जैसे चन्द्रमा में कान्ति और कलंक। एक ओर चारों वेद और दूसरी ओर क्षात्र-धर्म। ये दोनों भारतों के आचार्य द्रोण और उनके पुत्र को छोड़कर एक साथ न मिलेंगे। इस समय अर्जुन को आया जान हमें मिलकर युद्ध करना चाहिए। युह फूट का समय नहीं, बल्कि जितने दोष हैं, उनमें फूट सबसे बुरी है।’’ भीष्म का यह सारा कथन कुछ विचित्र-सा है। ऊपर से यह दुर्योधन का पक्षपात ज्ञात होता है; पर सोचने से जान पड़ता है कि आपस की ‘तू-तू, मैं-मैं’ की बिगड़ी हुई परिस्थिति को सम्हालने के लिए भीष्म न तत्तो-थम्भे करना उचित समझा। मूलतः दोष दुर्योधन का था, जिसने द्रोण पर यों कटाक्ष किया था। अश्वत्थामा ने कहा, ‘‘आचार्य ही क्षमा कर सकते हैं। जब आचार्य पर कटाक्ष किया गया तब उसकी प्रतिक्रिया से यह सब कुछ हो गया। अब शान्ति करनी चाहिए।’’ उस परिस्थिति में दुर्योधन को अपनी भूल मालूम हुई और उसने द्रोण से क्षमा मांगी। इस पर द्रोण ने कहा, ‘‘भीष्म ने पहले जो वाक्य मेरे सम्बन्ध में कहा, ‘‘मैं तो उसी से संतुष्ट हो गया। अब आगे की बात सोचो। दुर्योधन असंयम, साहस या मोह भी करे, तो भी सैनिकों को आंच न आनी चाहिए। यही नीति है। वनवास के पूरा हुए बिना अर्जुन अपने को प्रकट न करेगा। इसलिए दुर्योधन ने जैसा कहा, भीष्म कृपया बतावें कि अवधि पूरी हुई या नहीं।’’ भीष्म ने कालचक्र का ठीक हिसाब लगाते हुए कहा कि हर पाँचवे वर्ष में दो महीने बढ़ जाते हैं, अतएव गणना के अनुसार पांच महीने और बारह दिन तेरह वर्ष से अधिक हो गये हैं। हिसाब का निश्चय करके ही अर्जुन आता है। पाण्डव ऐसी भूल ने करेंगे। युद्ध से ही सिद्धि मिल जाय, मैं ऐसा नहीं समझता। इसलिए या तो युद्ध या धर्म-जैसी नीति सोचो, करो, क्योंकि अर्जुन सामने आ गया है।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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