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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 277-283
38. सावित्री-उपाख्यान
‘साध’ धातु का इस अर्थ में प्रयोग ठेठ गुप्तकाल की भाषा में आता है। कुमारगुप्त के समय के (पाँचवीं शती) चतुर्भाणी नामक ग्रन्थ में अनेक बार इस धातु का इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। आरण्यक पर्व के ऊपर लिखित श्लोक से मिलता हुआ प्रयोग रघुवंश में कालिदास ने भी किया है, ‘‘साधयाम्यहमविघ्नमस्तुते।’ इन श्लोकों को यदि निकाल दिया जाय तो 278।10 की संगति 279।1 श्लोक से जुड़ जाती है। तब राजा अश्वपति ने द्युमत्सेन के आश्रम में जाकर विधिवत अपनी कन्या सत्यवान को अर्पित की। अपने पिता के लौट जाने पर सावित्री ने सब आभूषण त्यागकर अरण्यवास के योग्य वल्कल धारण कर लिया और अपने सास-सुसर एवं पति को परिचर्या से संन्तुष्ट किया। आश्रम में रहते हुए समय बीतता गया, पर सावित्री को सोते-जागते नारद का वह वाक्य याद रहता था। जब वह समय निकट आया और जब उसने जाना कि चौथे दिन पति की मृत्यु होगी तो उसने तीन दिन का निराहार व्रत किया और रात-दिन जागती रही। वधू के उस नियम से राजा द्युमत्सेन को दुःख हुआ और उसने सावित्री से कहा, ‘‘तुमने यह अत्यन्त कठोर व्रत आरम्भ किया है। तीन रात्रि का उपवास परम दुष्कर होता है।’’ सावित्री ने उत्तर दिया, ‘‘हे तात, आप चिन्ता न करें, मैं इस व्रत को पूरा कर लूंगी। मैंने ऐसा ही निश्चय किया है और इसका हेतु है।’’ द्युमत्सेन ने कहा, ‘‘तुम व्रत तोड़ दो’, यह कहना उचित नहीं हैं। मुझे यही कहना चाहिए कि तुम्हारा व्रत पूर्ण हो।’’ यह कहकर द्युमत्सेन चुप हो गए, किन्तु सावित्री ने अगले दिन भर्तृ-मरण का सोच करते हुए बड़ी कठिनाई से वह रात्रि खड़े-खड़े बिताई। उसका शरीर काष्ठ-जैसा हो गया। अगले दिन जब तक सूर्य आकाश में चार हाथ ऊँचे उठे, उससे पहले ही उसने अग्निहोत्र करके सब ब्राह्मणों से एवं सास-ससुर से सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद प्राप्त किया और ध्यान-योग में लीन होकर उस मुहूर्त की प्रतीक्षा करने लगी। तब उसके सास-ससुर ने एकान्त में कहा, ‘‘तुमने विधिवत अपना व्रत पूरा कर लिया, उसके पारण का समय है, अब आहार करो’’ सावित्री ने कहा, ‘‘मेरा संकल्प है कि सूर्य के अस्त होने पर भोजन करूंगी। उसी समय सत्यवान कन्धे पर कुल्हाड़ा रखकर वन के लिए चला। सावित्री ने कहा, ‘‘आप अकेले न जायँ, मैं साथ चलूंगी। आज आपको छोड़ने का मन नहीं है।’’ सत्यवान ने विस्मित होकर कहा, ‘‘पहले तो तुम कभी साथ नहीं चलीं, और फिर आज तो व्रत और उपवास से क्षीण हो, पैदल कैसे चलोगी?’’ सावित्री ने कहा, ‘‘उपवास से मुझे कोई कष्ट या थकावट नहीं है। आज चलने में मेरा उत्साह है, आप मुझे न रोकें।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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