विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 222-224
34. द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद
सबसे पहले मैंने अपने चित्त से अंहकार को दूर किया। फिर काम और क्रोध से अपने को दूर रखा है। अभिमानरहित होकर शुश्रूषा द्वारा अपने पतियों का चित्त वश में रखती हूँ। सूर्य, वैश्वानर और सोम के समान महारथी पाण्डव ही मेरे लिए सब कुछ हैं। देव, मनुष्य, गन्धर्व कैसे भी यौवन और अलंकार या सौन्दर्य से युक्त हों, मेरे लिए दूसरा पुरुष है ही नहीं। घर में चाहें जितने नौकर हैं, पर पाण्डवों के भोजन किये बिना मैं स्वयं भोजन नहीं करती। खेत, वन या गाँव से जब पति घर में आता है तो उठकर आसन और पाद्य से स्वागत करती हूँ। मैं अपने घर में सब भाण्डों को साफ-सुथरा रखतीं हूँ। समय पर स्वादिष्ट भोजन देती हूँ। कभी अपने सम्भाषण में तिरस्कार के शब्द नहीं आने देती। दुष्टा स्त्रियों से व्यवहार नहीं रखती। आलस्यरहित होकर नित्य पतियों के अनुकूल रहती हूँ। अतिहास, अतिरोष से बचकर सदा सत्य में निरत रहती हूँ। पति से रहित मुझे कुछ भी इष्ट नहीं है। जब कुटुम्ब के किसी काम से पति विदेश जाते हैं तो पुष्प और गन्धानुलेपन से विरत रहकर व्रत पालन करती हूँ। पति जो नहीं खाते-पीते, उससे मैं भी बचती हूँ। मेरी सास ने पहले मुझे कुटुम्ब-धर्म सिखाये थे, उनका पालन करती हूँ। सदा पूरी तरह विनय और नियमों को धारण करती हूँ। मेरा समस्त धर्म पतियों पर निर्भर है। मैं नित्य सावधान रहकर कर्म में लगी रहती हूँ। इसी से पति मेरे वश में हैं। सत्यवादिनी आर्या कुन्ती की परिचर्या मैं स्वयं करती हूँ। किसी समय युधिष्ठिर के भवन में अनेक ब्रह्मवादी ब्राह्मण, गृहमेधी स्नातक एवं ऊर्ध्वरेता यति भोजन करते थे। मैं उनका यथावत सम्मान करती थी। महात्मा कौन्तेय के यहाँ जो अनेक दास–दासियां थीं मैं उन सबके नाम–रूप जानती थी और उनके भोजन-वस्त्र के विषय में सावधानी रखती थी, यहाँ तक कि न केवल अन्तःपुर के भृत्य किन्तु गोपाल और अविपालों के कर्म-अकर्म के विषय में भी मैं सब कुछ जानती थी। राजा के आय और व्यय का भी मुझे परिचय था। जैसा वरुण निधियों से भरे हुए समुद्र का परिचय रखते हैं, वैसे ही मैं अकेली अपने पतियों के कोश के विषय में जानती थी। मेरे लिए पतियों की आराधाना में रात-दिन एक समान थे। मैं सबसे पहले उठती और बाद में सोती हूँ। वही मेरा वह महान ‘पति-आराधन’ व्रत है, जिसके द्वारा मैं अपने पतियों को प्रसन्न रख सकी हूँ।’’ यह सुनकर सत्यभामा अति प्रभावित हुई और उसने अपने प्रश्न का स्मरण करते हुए लजाकर द्रौपदी से क्षमा मांगी, ‘‘हे याज्ञसेनि, सखियों को आपस में हंसी करने की कुछ छूट मिलनी ही चाहिए।’’ तब सत्यभामा के साथ कृष्ण सबसे विदा होकर अपने रथ पर बैठकर चले गए। जाते हुए सत्यभामा ने आत्मीयतापूर्वक कहा, ‘‘हे द्रौपदी, तुम्हारे अभिमन्यु आदि जो पुत्र द्वारका में है वे सब कुशल से है। उनमें और प्रद्युम्न आदि अपने पुत्रों में कृष्ण और वृष्णि कोई भेद नहीं मानते।’’ इतना कह सत्यभामा ने द्रौपदी की प्रदक्षिणा की। इसके बाद पाण्डवों ने उस मण्डली को शनैःशनैः विदा किया और स्वयं द्वैतवन में, जहाँ एक उत्तम सरोवर था, पहुँचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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