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‘जब मैंने सुना कि जिस शक्ति से समर में अर्जुन का नाश होने को था, उसे सूतपुत्र कर्ण ने पहले ही छोड़ दिया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि धृष्टद्युम्न ने धर्म का उल्लंघन करके रथ में अकेले बैठे हुए प्राणोत्सर्ग के व्रती द्रोणाचार्य को मार डाला, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि द्वैरथ-युद्ध में सब लोगों के सामने माद्रीपुत्र नकुल अकेले अश्वत्थामा से भिड़ गए, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि द्रोण की मृत्यु के बाद द्रोणपुत्र अश्वत्थामा दिव्य नारायण-अस्त्र का प्रयोग करके भी पाण्डवों का अन्त न कर सका, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि अत्यन्त शूर कर्ण को भी पार्थ ने भाई-भाई के उस युद्ध में मार डाला, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा, कृपाचार्य, दुःशासन और उग्र कृतवर्मा ने युधिष्ठिर को अकेले में पाकर भी कुछ नहीं किया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि युधिष्ठिर ने मद्रराज शल्य को, जो कृष्ण के सामने डर जाता था, मार डाला, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कलह-द्यूत के मूल, छलछंदी, पापी शकुनि को सहदेव पाण्डव ने संग्राम में मार दिया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि दुर्योधन विरथ और भग्नदर्प होकर सरोवर के जल में जा सोया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कृष्ण के साथ पाण्डव गंगा-हृद में छिपे हुए असहनशील दुर्योधन को जाकर डपटने लगे, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि गदायुद्ध में विविध पैंतरों से मण्डल बनाकर लड़ते हुए दुर्योधन को कृष्ण की बताई युक्ति से भीम ने मार डाला, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा आदि ने द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों का वध करके बड़ा बीभत्स और निन्दित कार्य किया, तब मुझे विजय की आशा नही रही, संजय!
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