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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 157-177
हे नागराज, जिसमें चरित्र है, वही ब्राह्मण है; जिसमें चरित्र नहीं, वह शूद्र है। आपने जो यह कहा कि सुख और दुःख इन दोनों से अतीत कोई वेद्य वस्तु नहीं है, तो मेरा कहना है कि ऐसा भी एक पद है, जहाँ सुख और दुःख का परिचय नहीं, जैसे शीत और उष्ण इन दोनों के बीच में एक ऐसी स्थिति होती है, जिसे न शीत कह सकते हैं, न उष्ण।’’ नागराज ने धर्मराज को पुनः तर्क में चांपते हुए कहा, ‘‘यदि तुम्हारे मत से चरित्र से ही ब्राह्मण है, तब बिना चरित्र या कर्म के जाति व्यर्थ ठहरती है।’’ प्रश्न मामूली नहीं है। यह जाति-पांति के वृक्ष पर सदा-सदा उठने वाला बड़ा कुल्हाड़ा है, पर इस कटीले प्रश्न से भी युधिष्ठिर नहीं ठिठके। उन्होंने उसी धीरता और साहस से उत्तर दिया, ‘‘हे नागराज, यहाँ मनुष्यों में जाति है ही कहाँ? कौन-सी वह जाति है, जिसमें वर्ण का संकर न हुआ हो? वर्णों की आपसी मिलावट के कारण जाति की ठीक-ठीक पहचान की बात उठाना व्यर्थ है। सब लोग सब प्रकार की स्त्रियों में पुत्रोत्पत्ति कर रहे हैं, इसलिए जो तत्त्वदर्शी हैं, उनके मत में शील ही मुख्य है। जन्म के बाद वर्णों के जातक्रम आदि संस्कार भी किये जायं, पर अगर किसी में चरित्र नहीं है तो मैं उसे वर्णसंकर की हालत में ही पड़ा हुआ समझूँगा। हे नागराज, इसलिए मैंने पहले कहा कि जिस व्यक्ति में निखरा हुआ चरित्र (संस्कृत वृत्त) है, वहीं ब्राह्मण है।’’[1] भारतीय संस्कृति की विश्वात्मा को प्रकट करने वाले ये उद्गार व्यास की अभिनव धर्म-व्याख्या के अन्तर्गत प्रकाशमान मणि-रत्न हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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