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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 157-177
यामुन पर्वत पर कुबेर के चैत्ररथ के समान ही विशाखयूप नामक वन था। उसके समीप की पर्वत कन्दरा में भीमसेन को एक अजगर ने अपनी कुण्डली में जकड़ लिया। युधिष्ठिर की बुद्धिमत्ता से भीम को छुटकारा मिला। यह अजगर पूर्व जन्म में राजा नहुष था। जो शापवश यहाँ आकर रहा था। जनमेजय के प्रश्न करने पर वैशम्पायन ने नहुष के चरित का वर्णन किया। आयु के पुत्र नहुष नाम के राजर्षि थे। उन्होंने ऋषियों का अपमान किया, इस पर अगस्त्य के शाप से उन्हें सर्प की योनि में आना पड़ा। शाप की अवधि बताते हुए ऋषि ने इतना और कहा कि जो तुम्हारे पूछे हुए प्रश्न का उत्तर देगा, वही तुम्हें शाप से मुक्त करेगा। पूर्व जन्म की यह स्मृति लिये हए वह सर्प वहाँ रहता था। भीम ने उसी के मुख से उसका यह हाल सुनकर कहा, ‘‘हे महासर्प! मुझे तम्हारे ऊपर क्रोध नहीं। मनुष्य सुख-दुःख दोनों के होने-अनहोने में अशक्त है। दैव ही प्रधान है, पुरुषार्थ निरर्थक है। दैव के कारण ही मैं अपना बल खोलकर इस अवस्था में पहुँचा हूँ। मुझे और कुछ नहीं, केवल अपने भाइयो की सोच है।’’ इधर भीम के न आने से युधिष्ठिर चिन्तित हुए और उसे ढूँढते हुए वह उसी गिरि-गहृर में जा पहुँचे। भीम को देखकर उन्होंने सब हाल पूछा। वृत्तांत जानकर युधिष्ठिर ने सर्प से कहा, ‘‘हे अजगर, युधिष्ठिर तुमसे पूछता है, सत्य कहो। कौन-सा वह ज्ञान है, जिससे तुम प्रसन्न हो सकोगे? तुम्हारे लिए क्या लाऊं, जो तुम मेरे भाई को छोड़ दोगे?’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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