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‘जब मैंने नारद से सुना कि नर-नारायण के रूप में कृष्ण और अर्जुन को वह सदा ब्रह्मलोक में देखते हैं, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि वह माधव-वासुदेव, जिनके एक चरणन्यास से यह सारी पृथ्वी परिमित है, सब प्रकार पाण्डवों के पक्ष में हैं, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन ने कृष्ण को पकड़ लेने की सूझ बांधी और कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखलाया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कृष्ण के प्रस्थान करने पर रथ के आगे अकेली खड़ी हुई कुन्ती को केशव ने सान्त्वना दी, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि वासुदेव पाण्डवों के मंत्री हैं तथा शान्तनु के पुत्र भीष्म और भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न द्रोण दोनों उन्हें आशीर्वाद देते हैं, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कर्ण ने भीष्म से यह कह दिया कि तुम्हारे युद्ध करने पर मैं युद्ध में सम्मिलित न होऊंगा, और वह सेना को छोड़कर हट गया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कृष्ण और अर्जुन तथा अनुपम गाण्डीव धनुष, ये तीन उग्र शक्तियां एक-साथ जुट गई हैं, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि विषाद से भरकर रथ में बैठे हुए दुखी अर्जुन को कृष्ण ने अपने शरीर में विराट रूप का दर्शन कराया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि अमित्रघाती भीष्म युद्ध में सहस्रों रथियों का नाश तो कर रहे हैं, किन्तु, सामने दिखाई देने वाले पाण्डवों में से कोई नहीं मरता, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि अत्यन्त शूर, युद्धों में अजेय भीष्म अर्जुन द्वारा शिखण्डी की ओट में मार दिये गए, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि अनेक सोम-क्षत्रियों की मार-काट करके बूढ़े वीर भीष्म भी स्वयं शर-शय्या पर पड़ गए और उन बाणों के रंग-बिरेंगे पुंखों से घिर गए, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि भीष्म के पानी मांगने पर अर्जुन ने पातालफोड़ जल से भीष्म को तृप्त किया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
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