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‘जब मैंने सुना कि वन को प्रस्थान करते हुए पाण्डव सब भाँति दुःखी होकर भी अपने ज्येष्ठ बन्धु की प्रसन्नता के लिए केवल धर्म पर ही आरूढ़ रहे, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि सहस्रों स्नातक और भिक्षा-भोजन करने वाले महात्मा ब्राह्मण युधिष्ठिर की भक्ति से खिंचकर उनसे मिलने वन में जा पहुँचे तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि अर्जुन ने किरातरूपधारी देवदेव त्र्यंबक शिव को युद्ध में प्रसन्न करके पाशुपत महास्त्र प्राप्त कर लिया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि सत्य पर आरूढ़ धनंजय अर्जुन ने स्वर्ग में जाकर साक्षात इन्द्र से भली-भाँति दिव्य अस्त्रों का अध्ययन किया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि भीम और अन्य कुन्तीपुत्र मनुष्यों से अगम्य देश में वैश्रवण कुबेर से जाकर मिले, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कर्ण की सलाह मानकर, मेरे पुत्र घोष-यात्रा में गए और वहाँ पाण्डवों ने गन्धर्वों के बन्धन से उन्हें छुड़ाया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि स्वयं धर्म यज्ञ का रूप धरकर युधिष्ठिर से मिले और उनके पूछे हुए प्रश्नों का युधिष्ठिर ने समाधान कर दिया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि कौरवों के तगड़े वीरों को विराट देश में बसते हुए महात्मा अर्जुन ने अकेले ही मारकर भगा दिया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि मत्स्य देश के राजा ने सत्कार के साथ अपनी पुत्री उत्तरा अर्जुन को अर्पित की और अर्जुन ने अपने पुत्र के लिए उसे स्वीकार कर लिया, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
‘जब मैंने सुना कि सब भाँति निर्जित, वन में गए हुए और स्वजनों से छूटे हुए युधिष्ठिर के पक्ष में भी सात अक्षोहिणी सेना एकत्र हो गई, तब मुझे विजय की आशा नहीं रही, संजय!
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