विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 165-172
जब से अर्जुन गए थे, पाण्डवों को मानसिक शान्ति न मिली थी। अर्जुन पाँच वर्ष तक इन्द्रलोक में रह चुके थे और अनेक दिव्य-अस्त्रों की प्राप्ति भी कर चुके थे। उचित अवसर जानकर अर्जुन ने इन्द्र से विदा ली और गन्धमादन पर्वत पर आकर अपने भाइयों से मिले। उन्होंने धौम्य, युधिष्ठिर और भीम के चरणों की वन्दना की। नकुल और सहदेव ने उनका अभिवादन किया। अर्जुन ने द्रौपदी से मिलकर उसे सान्त्वना दी। सब लोग परम हर्षित हुए। अर्जुन ने विस्तार से अपनी कथा सुनाई कि किस प्रकार उन्होंने अपने शील और समाधि से शिव और इन्द्र को प्रसन्न करके दिव्य-अस्त्र प्राप्त किये थे। उसी समय देवराज इन्द्र भी युधिष्ठिर से मिलने के लिए आये। युधिष्ठिर ने उनका उचित आदर किया। इन्द्र ने कहा, ‘‘हे राजन आप इस पृथ्वी का शासन करें। निश्चय ही आपका कल्याण होगा। अब आप काम्यक आश्रम को लौट जायं।’’ यह कह इन्द्र भी अपने स्थान को चले गए। इस प्रकरण के अन्त में फलश्रुति के दो श्लोक इस प्रकार हैं: कुबेर और इन्द्र के साथ पाण्डवों के समागम की इस कथा को जो वर्ष भर तक व्रतवान ब्रह्मचारी रहकर पढ़ेगा, वह सब दुःखों से छूटकर सौ वर्ष की आयु तक सुख से जियेगा।[1] इससे यह निश्चित माना जा सकता है कि कुबेर और इन्द्र से पाण्डवों का सम्मिलन बाद के किसी उत्साही लेखक की कल्पना है, जिसने यह उचित समझा कि देवलोक के इतने समीप पहुँचकर पाण्डवों को उन देवों से बना मिले न रहना चाहिए। यहीं नन्दनवन के वर्णन में लगभग साठ वृक्षों की सूची में आम्र के साथ सहकार का भी उल्लेख है[2] आम्र बीजू आम के लिए और सहकार कलमी आम के लिए प्रयुक्त होता था। सहकार शब्द का पहली बार प्रयोग अश्वघोष के सौन्दरनन्द काव्य[3] में हुआ है। उसके बाद तो अमरकोष, कुमारसंभव, रघुवंश, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र आदि गुप्तकालीन साहित्य में इस शब्द का प्रयोग बहुतायत से मिलने लगता है। इससे संकेत मिलता है कि गन्धमादन प्रदेश की यात्रा का यह उलझा हुआ प्रकरण, जिसकी पुनरुक्तियों से जी ऊबने लगता है, गुप्तकाल में जोड़ा गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज