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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 150
उससे विदा लेकर पाण्डवों ने गन्धमादन पर्वत के दर्शन की इच्छा से विशालाबदरी की ओर प्रस्थान किया। आज भी बदरीनाथ के पास का पर्वत इसी नाम से विख्यात है। गन्धमादन की चोटियों को किन्नराचरित कहा गया है और इसके पार्श्वा-प्रदेशों में यक्षों और गंधर्वों की स्त्रियों का उल्लेख किया गया है। वस्तुतः किन्नर, यक्ष और गन्धर्व इस प्रदेश में रहने वाली जातियों की संज्ञाएँ थीं। इसी प्रदेश में मन्दर-गिरि और मैनाक इन दो पर्वत चोटियों के भी नाम आये हैं। मन्दरगिरि पर माणिभद्र यक्ष और कुबेर का निवास था। अतएव यह पर्वत बदरीनाथ के पास ही वर्तमान अलकापुरी और माणा से सम्बद्ध होना चाहिए। अलकापुरी कुबेर की और उसके समीप पद्म-सौगन्धिकों से भरी पुष्करिणी एवं विपुल नदी का उल्लेख है। अनेक सौगन्धिक कमलों और दिव्य पद्मों से भरी हुई कुबेर की पुष्करिणी की पहचान बदरीनाथ के पास ही भउडार घाटी से जान पड़ती है, जहाँ की पुष्प-समृद्धि संसार में सबसे अधिक है। लंदन के राजकीय क्यू उद्यान के अध्यक्ष श्री स्मिथ ने इसे ‘वैली आव फ्लावर्स’ (फूलों की घाटी) कहा है और इसी नाम की पुस्तक में इसका वर्णन भी किया है। इसका प्राचीन सौगन्धिक वन चरितार्थ होता है।[1] इसी प्रदेश में कदली-वन का उल्लेख भारतीय भूगोल की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। कदली वन के मध्य में भीम ने हनुमान का एकान्त आश्रम देखा। हनुमान के इस आश्रम का नाम लोकभाषा में बन्दरपूँछ है। यमुना का उद्गम स्थान होने के कारण यही यामुन पर्वत कहलाता था। जमनोत्री और बन्दरपूँछ यमुना के उद्गम स्थान के पश्चिम और पूरब की दो चोटियां हैं। यह कदली वन पीछे के भारतीय साहित्य ने कजलीवन नाम से प्रसिद्ध हो गया। जायसी ने कई बार कजलीवन का उल्लेख किया है और लिखा है कि गोपीचन्द्र वैरागी होकर योग साधना के लिए कजलीवन में चले गए थे।[2] वनपर्व के अनुसार कदलीवन में सिद्ध लोग ही जा सकते थे (बिना सिद्ध गति वीर गतिरत्र न विद्यते)।[3] वस्तुतः देहरादून से एक ओर यामुन पर्वत और दूसरी ओर बदरीनाथ के बीच का समस्त प्रदेश साधना में लीन सिद्धों के आश्रमों से भरा होने के कारण कदलीवन कहलाने लगा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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