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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 135
यवक्रीत ने कहा, ‘‘अरे, गंगा के इस महान प्रवाह को क्या तुम बालू की मुट्ठियों से बान्ध सकते हो? इस असंभव काम से विरत हो और जो कर सको, उसमें मन लगाओ।’’ इन्द्र ने कहा, ‘‘वेदों के अर्थ ज्ञान के लिए जैसे तुम्हारा यह तप है, वैसे ही मैंने भी कार्य का यह भारी बोझ उठाया है।’’ यवक्रीत ने संकेत समझ लिया और कहा, ‘‘हे इन्द्र, जैसा तुम्हारा यह व्यर्थ प्रयत्न है, यदि मेरा तप भी वैसा ही निरर्थक है, तो जो मेरे लिए शक्य हो, वह बताओ और मुझे वरदान दो कि मैं दूसरों से अधिक हो सकूँ।’’ इन्द्र ने कहा, ‘‘अच्छा, तुम्हें और तुम्हारे पिता को वेद प्रतिभासित होंगे, और भी जो चाहोगे, तुम्हारी कामना पूर्ण होगी।’’ यहाँ तक यवक्रीत का उपाख्यान सीधे-सादे बुद्धिगम्य रूप में चलकर तीस श्लोकों में समाप्त हो गया है। इसकी पृष्ठभूमि इन्द्र और भरद्वाज का वह वैदिक उपाख्यान था, जो तैत्तिरीय ब्राह्मण में पाया जाता है। वहाँ भरद्वाज ऋषि वैदिक ज्ञान के लिए तप करते हैं। इन्द्र ने उनसे पूछा, ‘‘हे भरद्धाज, यदि तुम्हें इसी प्रकार एक जन्म और मिले तो क्या करोगे?’’ भरद्वाज ने कहा, ‘‘मैं वेदों के सम्पूर्ण ज्ञान के लिए इसी प्रकार तप करूंगा।’’ इन्द्र ने फिर पूछा, ‘‘यदि एक जन्म और मिले तो क्या करोगे?’’ भरद्वाज ने कहा, ‘‘मैं इसी प्रकार वेदार्थ-ज्ञान के लिए तप करूँगा।’’ तब उनके सामने तीन पर्वत प्रकट हुए। इन्द्र ने उनमें से एक-एक मुट्ठी भरकर कहा, ‘‘हे भरद्वाज! इन पर्वतों को देखते हो? तुम जितना ज्ञान पाओगे, वह इन मुट्ठियों के बराबर है। वेद तो अनन्त हैं।[1] यह प्राचीन वैदिक कहानी सार्थक है। वैदिक ज्ञान या सृष्टि का ज्ञान सचमुच अनन्त है। मनुष्य के मस्तिष्क में उसका जो अंश आ सकता है, वह अपेक्षाकृत इतना अल्प है, जितनी पर्वत की तुलना में एक मुट्ठी धूल। अर्वाचीन दार्शनिक मॉरिस मेटरलिंक ने अज्ञेय तत्त्व की दुर्धर्षता से स्तब्ध होकर इसी से मिलता-जुलता उद्गार प्रकट किया है, ‘‘इस विश्व के एक परमाणु का भी संपूर्ण ज्ञान कभी किसी को हो सकेगा, इसमें सदेह है। मैं अपने शत्रु के लिए भी यह न चाहूँगा कि वह ऐसे जगत में रहने के लिए बाध्य हो, जिसके एक परमाणु का भी पूरा ज्ञान किसी ने जान लिया हो।’’ यवक्रीत के इस वैदिक उपाख्यान के साथ एक अनमेल पुछल्ला भी महाभारत में जुड़ गया है। इसमें लगभग अस्सी श्लोक हैं। कहानी के इस तीन-चौथाई किन्तु भद्दे अंश में मदोद्धत यवक्रीत अपने पिता के सखा रैभ्य की पुत्र-वधु के साथ अनाचार में प्रवृत्त होने के कारण कृत्या द्वारा नाश को प्राप्त हो जाता है। पिता भरद्वाज पुत्रशोक में चितारोहण करते हैं और रैभ्य को शाप देते हैं। उपाख्यान में आगे कहा गया है कि रैभ्य के पुत्र परावसु ने वन में विचरते हुए अपने पिता को ही भूल से मृग समझकर उनका वध कर डाला और तब छोटे पुत्र अर्वावसु ने अपने तप से ब्रह्महत्या के उस पाप का प्रक्षालन किया, और उन सबको पुनर्जीवित कर दिया। पतंजलि के महाभाष्य के अनुसा यवक्रीत के इस उपाख्यान के पढ़ने-पढ़ाने वाले यावक्रीतिक कहलाते थे। इससे ज्ञात होता है कि शुंग काल तक महाभारत से अलग भी इस उपाख्यान का अस्तित्व था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अनन्ता वै वेदाः
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