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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 33
इस प्रसंग में महाभारतकार ने कर्म के पक्ष में प्रबल युक्तियां देते हुए जीवन में समुत्थान का प्रतिपादन किया है। यह दार्शनिक मत नियतिवादी या भाग्यवादी लोगों के उत्तर में कहा हुआ सिद्धान्त था। ऊपर से सरल जान पड़ने वाले इस प्रकरण के मूल में प्राचीन दार्शनिकों के विचारों की नोंक-झोंक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। दिष्टवाद, हठवाद, स्वभाववाद और कर्मवाद इन चार मतवादों का यहाँ उल्लेख किया गया है। इनमें दिष्टवाद या भाग्य या नियति के मानने वाले मक्खलि गोसाल थे। बौद्ध और जैन साहित्य में विस्तार से उनके मत का उल्लेख किया गया है। राजा ययाति दिष्टवादी थे।[1] धृतराष्ट्र का झुकाव भी कुछ इसी मत की ओर था। शान्तिपर्व[2] में और भी विस्तार से नियतिवाद का विवेचन किया गया है। ऐसे लोग अनायास और निर्वेद के मानने वाले थे‚ जिनका उल्लेख द्रौपदी ने किया है। साथ ही सब प्राणियों में साम्यभाव और सत्यवाक्य, यह भी मंखलि गोसाल के दर्शन की विशेषता थी। स्वभाववाद अजितकेश कम्बली नामक दार्शनिक का मत था। हठवाद या यदृच्छावाद सम्भवतः पूरण कस्सप का मत रहा हो। ये तीनों ही और पकुध कच्चायन भी अक्रियावादी थे। द्रौपदी ने बृहस्पति के नाम से जिस कर्मवाद का वर्णन किया, वह बृहस्पति कौन थे, इस जिज्ञासा का सम्भावित उत्तर यह ज्ञात होता है कि लोकायत या चार्वाक दर्शन के संस्थापक बृहस्पति ही कर्मवाद के उपदेशक थे। पीछे चलकर यह दर्शन बहुत बदनाम हुआ और ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्’ के अत्यन्त विकृत रूप में चार्वाक दर्शन की स्मृति बची रह गई। वस्तुतः मूल में यह दर्शन अत्यन्त लोकप्रिय था और अक्रियावादी दार्शनिकों के मुकाबले में यही दर्शन ऐसा था, जो समुत्थान, प्रयत्न एवं पुरुषार्थ के द्वारा लोक-संस्थिति और कर्मवती सिद्धि का प्रतिपादन करता था। इसी कारण यह लोकायत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका प्रतिपादन जिस हृदयग्राही शैली से किया जाता था, उसके कारण इसके अनुयायी चार्वी या चार्वाक भी कहे जाते थे। अपने मूल रूप में लोकायत दर्शन और अन्य अक्रियावादी दर्शन भी उन तत्त्वों पर आश्रित थे, जो लोकहित के लिए आवश्यक थे। जैसे मक्खलि गोसाल के दर्शन में कर्म के निराकरण[3] की शिक्षा होने पर भी सर्वसाम्य और सत्यवाक्य, ये दो सशक्त लोकोपकारी तत्त्व थे, वैसे ही बृहस्पति के दर्शन में चक्षु से दृष्ट प्रत्यक्ष फल के साथ-साथ कर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन था। आगे चलकर इसके बिगड़े हुए रूप में प्रत्यक्षवाद तो रह गया, कर्मवाद लुप्त हो गया। महाभारत के इन संवादों में यथावसर प्राचीन दार्शनिकों के अभिमतों का सन्निवेश पाया जाता है। जिस प्रकार दीर्घनिकाय के ब्रह्मजालसुत एवं जैनों के उत्तराध्ययनसूत्र और सूत्रकृतांग आगमों में प्राचीन विचारकों के मतों या दिट्ठियों का संग्रह है, वैसे ही ब्राह्मण-साहित्य में महाभारत में भी उस प्रकार के मतों का संग्रह है। युक्तिपूर्वक उनके दोहन से प्राचीन भारतीय दर्शन के उस युग पर बहुत प्रकाश पड़ सकेगा, जबकि उपनिषदों के उतरते हुए युग में सैकड़ों नए-नए दार्शनिक मतवादों का जन्म हुआ था और यूनान के आरम्भकालीन दर्शन की भाँति भारतीय दर्शन भी नई कल्पनाओं के उन्मेष से समृद्ध बन रहा था। सौभाग्य से महाभारत के शत-साहस्र-विस्तार में ज्ञान की वे चमकती हुई मण्यिां यत्र-तत्र सुरक्षित रह गई हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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