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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 33
कुशल व्यक्ति विनिश्चय के साथ ही ठीक काम करता है। यदि कर्मों के मूल में पुरुष को कारण न माना जाय तो न कोई शिष्य विद्याभ्यास से गुरु बन सके और इष्टापूर्त कर्म ही पूरे हों। कर्म करना ही चाहिए, मनु ने यह सिद्धांत पहले ही निश्चय कर दिया था।[1] प्रायः जो कर्म करता है, वही फल पाता है, आलसी कभी कुछ नहीं पाता। कर्म करके ही मनुष्य अपने दायित्व से मुक्त होता है। जो आलस्य में पड़ा रहता है, उसे अलक्ष्मी धर दबाती है। कर्मरत धीर नर बिगड़े हुए काम को भी जब उठा लेते हैं, तब अपने मुक्त-संशय मन और कर्म से उसे पार लगा देते हैं। “इस समय हम लोगों का काम चारों ओर से बिगड़ा हुआ है। आप यदि कर्म में मन लगायेंगे, तो अवश्य ही इस अनर्थ को भी संशय रहित बना सकेंगे। आपकी और आपके भाइयों की महिमा ऐसी है कि उससे सिद्धि अवश्य मिलेगी। औरों का काम सफल होता है, हमारा भी क्यों न होगा? जो कर्म कर चुकता है, उसका पता देर से फल प्राप्त होने पर लगता है। किसान हल से धरती को उखाड़कर बीज बो देता है और चुप बैठा रहता है। फल वृष्टि के अधीन है। मेघ यदि कृपा न करे तो किसान का दोष नहीं, क्योंकि पुरुष को जो करना चाहिए, वह कर चुका। ऐसे ही हमारा कर्म भी अफल रहा, तो हमारा अपराध नहीं कहा जायगा। कर्म करने पर दो ही बातें हो सकती हैं, सिद्धि या असिद्धि; किन्तु कर्म में प्रवृत्ति ही न होना इन दोनों से अलग है। मनुष्य को उचित है कि वह कभी निर्वेद को न प्राप्त हो, और न हिम्मत हारकर स्वयं अपनी अवमानना करे। जिसकी आत्मा बुझ गई, उसका वैभव भी रुक गया। हे भारत, लोक-संस्थिति का हेतु यही है। पहले मेरे पिता ने किसी विद्वान ब्राह्मण को अपने यहाँ आश्रय दिया था। तब उसने मेरे भाइयों को शिक्षा देते हुए बृहस्पति-प्रोक्त इस नीति की शिक्षा दी थी। मैंने भी अपने पिता की गोद में बैठे हुए उनका यह संवाद सुना था। वही आपसे कह रही हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्त्तव्यं त्वेव कर्मेति मनोरेष विनिश्चयः आर. 33।36
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