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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 1-6
इस उपदेश में युधिष्ठिर का मन इस समय क्या लगता! उन्हें तो यही चिन्ता सता रही थी कि साथ में चलते हुए इन ब्राह्मणों के भोजन आदि का प्रबन्ध कैसे हो। युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य से पूछा, “महाराज, में ऐसी स्थिति में क्या करूं?” धौम्य ने सूर्य के 108 नाम बताते हुए उसकी अराधना करने का परामर्श दिया। युधिष्ठिर ने तप द्वारा सूर्य को प्रसन्न किया और सूर्य ने प्रसन्न होकर वरदान दिया, “तुम्हारे चौके में अक्षय अन्न रहेगा।” युधिष्ठिर ने नियम लिया कि ब्राह्मणों को और अपने भाइयों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करेंगे। इसी प्रकार द्रौपदी ने नियम किया कि युधिष्ठिर को भोजन कराने के बाद वह स्वयं भोजन करेगी। सूर्य के वरदान में द्रौपदी को एक तांबे की अक्षय बटलोई मिलने का उल्लेख नीलकंठ के संस्करण में पाया जाता है, किन्तु पूना के संस्करण में वह श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध हुआ है। विदुर पर क्रोध
उधर पाण्डवों के चले जाने पर धृतराष्ट्र का मन कुछ सोचकर बेचैन हो गया। उन्होंने विदुर से कहा, “हे विदुर, कहीं ऐसा न हो कि पाण्डवों के प्रति हमारे व्यवहार से क्रुद्ध पुरवासी हमें जड़ से उखाड़ दें। इसलिए बताओ, हम क्या करें।” इस प्रश्न में धृतराष्ट्र के मन में छिपा हुआ खुटका साफ दिखाई पड़ता है। प्रश्न सुनकर विदुर भी पहले तो ठिठके, फिर कहने लगे, “हे राजन, धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्ग का मूल भी धर्म है; राज्य का मूल भी धर्म है। वह धर्म तो सभा में अक्षद्यूत के समय लुप्त हो गया। तुम्हारी उस करतूत का अब एक ही उपाय मेरी समझ में आता है, जिससे तुम्हारे उस पापी पुत्र को लोग पुनः साधु समझने लगें। तुमने पाण्डवों को राज्य और भूमि पहले दी थी वह उन्हें फिर प्राप्त हो, यही तुम्हें करना चाहिए। मैंने पहले ही तुमसे दुर्योधन का त्याग करने के लिए कहा था, किन्तु तुमने माना नहीं। अब इस हित वचन को न मानोगे तो पीछे पछताओगे। तुम युधिष्ठिर को पुनः उनका राज्य दे दो। तुमने पूछा, इसलिए मैंने यह कहा है।” धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया, “हे विदुर, तुम्हारा यह कहना मेरे गले में नहीं उतरता। इससे पाण्डवों का हित होगा और मेरे पुत्रों का अहित। मुझे तो लगता है कि तुम हमारे हितू नहीं रहे। मैं पाण्डवों के लिए अपने पुत्रों को कैसे छोड़ दूं? हे विदुर, मैं तो तुम्हारा इतना आदर करता हूं, पर तुम टेढ़ी बात ही करते हो। तुम्हारा जहाँ मन हो, चले जाओ या यहाँ रहो। असती स्त्री को जितना भी मनाओ, वह अन्त में छोड़ ही जाती है। यही तुम्हारी दशा है।” इतना कहकर धृतराष्ट्र क्रोध से कांपते हुए एकाएक उठे और अन्तःपुर में चले गए। इधर विदुर भी ‘बात ऐसी नहीं है’ कहते हुए पाण्डवों के पास चल दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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