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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 43-51
दुर्योधन का यह विलाप सुनकर धृतराष्ट्र ने समझाया, “हे पुत्र, तुम ज्येष्ठ के पुत्र होने से ज्येष्ठ हो, तुम्हें पाण्डवों से द्वेष नहीं करना चाहिए। द्वेषकर्त्ता मृत्यु-जैसा दुःख पाता है। तुम अपने भाई की सम्पत्ति पर क्यों आंख गड़ाते हो? तुम्हें भी वैसी यज्ञ-विभूति चाहिए तो तुम भी महायज्ञ करो, जिससे तुम्हारे यहाँ भी राजा विपुल धन भर दें। जो अपने धर्म में रहकर निज धन से संतोष पाता है, वही सुखी होता है। मनुष्य को चाहिए कि वह स्वकर्म में नित्य उद्योग करे, दूसरों के काम में न उलझे।” धृतराष्ट्र के इस प्रकार समझाने पर दुर्योधन को तनिक भी शांति न मिली, उलटे उसके मन में ईर्ष्या और द्वेष की आग और भभक उठी। उसने बहुत कुछ अनर्गल बकने के बाद अन्त में कहा, “या तो मुझे वैसी ही लक्ष्मी चाहिए या मैं लड़कर प्राण दे दूंगा। आज जैसी अवस्था में मेरा जीना व्यर्थ है।” मौका पाकर पास में बैठे हुए शकुनि ने कहा, “युधिष्ठिर के पास तुम जो सम्पत्ति देखते हो, उसे मैं बिना जोखिम के और बिना युद्ध के केवल अपने पांसों के बल से तुम्हें दिला सकता हूँ। दांव मेरा धनुष है, पांसे मेरे बाण हैं, द्यूत-कला मेरी प्रत्यंचा है ओर पांसों का फलक मेरा रथ है।” शकुनि का इशारा पाकर दुर्योधन ने पिता से फिर बात चलाई, “हे तात, यह शकुनि केवल द्यूत से पाण्डवों की सारी संपत्ति मुझे दिला सकता है। बस आप कह भर दीजिए।” धृतराष्ट्र यह सुनकर फेर में पड़ गए। उन्होंने कहा, “मैं विदुर से सलाह कर लूं, तो कहूँ।” दुर्योधन यह चाल समझता था। उसने कहा, “विदुर तो पाण्डवों का हितैषी है। वह तो तुम्हारी बुद्धि को गड़बड़ा देगा। दो आदमियों की राय कहीं मिला करती है? अपने काम में दूसरे की सहायता कैसी? मन्दबुद्धि डरकर अपने को बचाता रहता है। बरसात में भीगे हुए भूसे की तरह वह सब तरह बिगड़ जाता है। रोग और मृत्यु बाट नहीं देखतीं कि मनुष्य का काम हुआ या नहीं। इसलिए जब तक शक्ति है, तभी तक हित कर लेना चाहिए।” यह सुनकर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को फिर बरजते हुए कहा, “हे पुत्र, तुम इस अनर्थ द्वारा घोर कलह का सूत्रपात करने चले हो।” दुर्योधन ने कहा, “इसमें अनर्थ की क्या बात है? पुराने लोगों ने ही तो द्यूत का व्यवहार निश्चित कर दिया है। न उसमें किसी धर्म्य मार्ग का अतिक्रमण है, और न किसी का अहित है। जो अक्षद्यूत में प्रवृत्त होते हैं, उनके लिए स्वर्ग का द्वार खुला है। अतएव शकुनि की बात मानकर आप शीघ्र सभा-निर्माण करने की आज्ञा दे दीजिए।” धृतराष्ट्र ने कहा, “पुत्र, तुमने जो कहा, वह मुझे नहीं जंचता। फिर भी तुम्हारा जो मन हो, करो। वैसा करके पीछे पछताओगे, यह बात कभी धर्मानुकूल नहीं हो सकती। मुझे क्षत्रियों का बीज नाश करने वाला बड़ा भय आया हुआ जान पड़ता है।” इतना कहकर धृतराष्ट्र ने मन में विचारा, ‘देव का विधान दुस्तर है, उसे कौन टाल सकता है!’ ऐसा सोचते हुए उनकी बुद्धि पर मानो दैव ने ही परदा डाल दिया और राजा धृतराष्ट्र ने पुत्र की बात मानते हुए अपने राज-पुरुषों को सभा बनाने की आज्ञा दे दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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