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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 88-89
भगवती ने कहा- महाभाग! तुम तो स्वयं ही भगवान और ज्योतिर्मय परमेश्वर हो; अत: जगग्दुरो! श्रीहरि का स्मरण करो और इस दैत्य को जीत लो। इसी बीच सर्वव्यापी विष्णु ने अपनी एक कला से वृष का रूप धारण किया और शूलपाणि शंकर से उस उग्र रथ को, जिसका पहिया ऊपर उठ गया था, प्राकृतिस्थ कर दिया। तत्पश्चात उसे अपने सिरपर उठा लिया। उन्होंने शंकर को एक मन्त्रपूत शस्त्र भी प्रदान किया। तब शंकर ने उस शस्त्र को लेकर और विष्णु तथा महेश्वरी दुर्गा का ध्यान करके शीघ्र ही त्रिपुर पर प्रहार किया। उसकी चोट खाकर वह दैत्य भूतल पर गिर पड़ा। उस समय देवताओं ने शंकर का स्तवन किया और उन पर पुष्पों की वर्षा की। दुर्गा ने उन्हें त्रिशूल, विष्णु ने पिनाक और ब्रह्मा ने शुभाशीर्वाद दिया। मुनिगण हर्षमग्न हो गये। सभी देवता हर्षविभोर हो नाचने लगे और गन्धर्व-किन्नर गान करने लगे। तात! इसी अवसर पर अनुपम स्तवराज भी प्रकट हुआ- जो विघ्नों, विघ्नकर्ताओं और शत्रुओं का संहारक, परमैश्वर्य का उत्पादक, सुखद, परम शुभ, निर्वाण-मोक्ष का दाता, हरि भक्तिप्रद, गोलोक का वास प्रदान करने वाला, सर्वसिद्धिप्रद और श्रेष्ठ है। उस स्तवराज का पाठ करने से पार्वती सदा प्रसन्न रहती हैं। वह मनुष्यों के लोभ, मोह, काम, क्रोध और कर्म के मूल का उच्छेदक, बल-बुद्धि कारक, जन्म-मृत्यु का विनाशक, धन, पुत्र, स्त्री, भूमि आदि समस्त संपत्तियों का प्रदाता, शोक-दुःख का हरण करने वाला, संपूर्ण सिद्धियों का दाता तथा सर्वोत्तम है। इस स्तोत्रराज के पाठ से महावन्ध्या भी प्रसविनी हो जाती है, बँधा हुआ बन्धनमुक्त हो जाता है, दुःखी निश्चय ही भय से छूट जाता है, रोगी का रोग नष्ट हो जाता है, दरिद्र धनी हो जाता है तथा महासागर में नाव के डूब जाने पर एवं दावाग्नि के बीच घिर जाने पर भी उस मनुष्य की मृत्यु नहीं होती। वैश्येन्द्र! इस स्तोत्र के प्रभाव से मनुष्य डाकुओं, शत्रुओं तथा हिंसक जन्तुओं से घिर जाने पर भी कल्याण का भागी होता है। तात! यदि गोलोक की प्राप्ति के लिए आप नित्य इस स्तोत्र का पाठ करेंगे तो यहाँ ही आपको उन पार्वती के साक्षात दर्शन होंगे। विप्रेन्द्र! श्रीकृष्ण का वचन सुनकर नन्द ने इस स्तोत्र द्वारा संपूर्ण संपत्तियों को प्रदान करने वाली पार्वती स्तवन किया। मुने! तब दुर्गा ने उन्हें गोलोक-वासरूप अभीष्ट वर प्रदान किया। साथ ही जो वेद में भी नहीं सुना गया है, वह परम दुर्लभ ज्ञान, गोकुल की राजाधिराजता और परम दुर्लभ श्रीकृष्ण-भक्ति भी दी। इसके अतिरिक्त नन्द को श्रीकृष्ण की दासता, महत्ता और सिद्धता भी प्राप्त हुई। इस प्रकार वरदान देकर और शम्भु के साथ वार्तालाप करके दुर्गा जी अदृश्य हो गयीं। तब देवता और मुनिगण भी नन्दनन्दन की स्तुति करके अपने-अपने स्थान को चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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