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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 78
उसके नारायण ही स्वामी हैं; दूसरा कोई कदापि नहीं है। वहाँ मनुष्य की मृत्यु होने पर उसे ज्ञान एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है। वहाँ व्रत के बिना भी मंत्र-जप करने से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। व्रजनाथ! व्रज को जाओ और उसे पवित्र करो। तात! जिनके दर्शन से पाप होता है; उन्हें बताता हूँ, सुनो। दुःस्वप्न केवल पाप का बीज और विघ्न का कारण होता है। गौ और ब्राह्मण की हत्या करने वाले कृतघ्न, कुटिल, देवमूर्तिनाशक, माता-पिता के हत्यारे, पापी विश्वासघाती, झूठी गवाही देने वाले, अतिथि के साथ छल करने वाले, ग्राम-पुरोहित, देवता तथा ब्राह्मण के धन का अपहरण करने वाले, पीपल का पेड़ काटने वाले, दुष्ट, शिव और विष्णु की निन्दा करने वाले, दीक्षारहित, आचारहीन, संध्यारहित द्विज, देवता के चढ़ावे पर गुजारा करने वाले और बैल जोतने वाले ब्राह्मण को देखने से पाप लगता है। पति-पुत्र से रहित, कटी नाकवाली, देवता और ब्राह्मण की निन्दा करने वाली, पति भक्तिहीनता, विष्णुभक्ति शून्या तथा व्यभिचारिणी स्त्री के दर्शन से भी पाप होता है। सदा क्रोधी, जारज, चोर, मिथ्यावादी, शरणागत को यातना देने वाले, मांस चुराने वाले, शूद्रजातीय स्त्री से संबंध रखने वाले ब्राह्मण, ब्राह्मणीगामी शूद्र, सूदखोर द्विज और अगम्या स्त्री के साथ समागम करने वाले दुष्ट नराधम को भी देखने से पाप लगता है। माता, सौतेली माँ, सास, बहिन, गुरुपत्नी, पुत्रवधू, भाई की पत्नी, मौसी, बूआ, भाँजे की स्त्री, मामी, परायी नवोढा, चाची, रजस्वला, पितामही और नानी- ये सामवेद में अगम्या बतायी गयी हैं। सत्पुरुषों को इन सबकी रक्षा करनी चाहिए। कामभाव से इनका दर्शन और स्पर्श करने पर मनुष्य ब्रह्महत्या का भागी होता है; अतः दैववश यदि इनकी ओर दृष्टि चली जाय तो सूर्यदेव का दर्शन करके श्रीहरि का स्मरण करे। जो कामनापूर्वक इन पर कुदृष्टि डालते हैं, वे निन्दनीय होते हैं। व्रजेश्वर! इसलिए शाप से डरे हुए साधु पुरुष इनकी ओर कुदृष्टि नहीं डालते। विद्वान पुरुष ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा को नहीं देखते। प्रथम, अष्टम, सप्तम, द्वादश, नवम और दशम स्थान में सूर्य हों तो सूर्य का तथा जन्म-नक्षत्र में और अष्टम एवं चतुर्थ स्थान में चंद्रमा हों तो चंद्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए। भाद्रपद मास के शुक्ल और कृष्णपक्ष की चतुर्थी को उदित हुए चंद्रमा को नष्टचंद्र कहा गया है; अतः उसका दर्शन नहीं करना चाहिए। मनीषी पुरुषों ने ऐसे चंद्रमा का परित्याग किया है। तात! यदि कोई उस दिन-बूझकर चंद्रमा को देखता है तो वह उसे अत्यंत दुष्कर कलंक देता है। यदि कोई मनुष्य अनिच्छा से उक्त चतुर्थी के चंद्रमा को देख ले तो उसे मंत्र से पवित्र किया हुआ जल पीना चाहिए। ऐसा करने से वह तत्काल शुद्ध हो भूतल पर निष्कलंक बना रहता है। जल को पवित्र करने का मंत्र इस प्रकार है- सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः।। ‘सुन्दर सलोने कुमार! इस मणि के लिए सिंह ने प्रसेन को मारा है और जाम्बवान ने उस सिंह का संहार किया है; अतः तुम रोओ मत। अब इस स्यमन्तकमणि पर तुम्हारा ही अधिकार है।’ इस मंत्र से पवित्र किया हुआ उत्तम जल अवश्य पीना चाहिए। तात! ये सारी बातें तुम्हें बतायी गयीं। अब तुमसे और क्या कहूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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