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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 78
जैसे वृक्ष काक आदि पक्षियों का आश्रय है; उसी प्रकार मन, बुद्धि, चेतना, प्राण, ज्ञान और आत्मासहित संपूर्ण देवता शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं। मैं सर्वेश्वर ही पूर्ण ज्ञान स्वरूप आत्मा हूँ। ब्रह्मा मन हैं, सनातनी प्रकृति बुद्धि हैं, प्राण विष्णु हैं तथा चेतना और उसकी अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी हैं। शरीर में मेरे रहने से ही सबकी स्थिति है। मेरे चले जाने पर वे भी सब के सब चले जाते हैं। हम सबके त्याग देने पर शरीर तत्काल गिर जाता है; इसमें संशय नहीं है। उसके पाँचों भूत उसी क्षण समष्टिगत पाँचों भूतों में विलीन हो जाते हैं। नाम केवल संकेत रूप है। वह निष्फल और मोह का कारण है। तात! अज्ञानियों को ही शरीर के लिए शोक होता है; ज्ञानियों को किञ्चिन्मात्र भी दुःख नहीं होता। निद्रा आदि जो शक्तियाँ हैं; वे सब प्रकृति की कलाएँ हैं। काम, क्रोध लोभ मोह के साथ जो पाँचवाँ अहंकार है; वे सब अधर्म के अंश हैं। सत्त्व आदि तीन गुण क्रमशः विष्णु, ब्रह्मा तथा रुद्र के अंश हैं। ज्योतिर्मय शिव ज्ञानस्वरूप हैं और मैं निर्गुण आत्मा हूँ। जब प्रकृति में प्रवेश करता हूँ तो मैं सगुण कहा जाता है। विष्णु, ब्रह्मा तथा रुद्र आदि सगुण विषय हैं। मेरे अंशभूत धर्म, शेषनाग, सूर्य और देव आदि विषयी कहे गये हैं। इसी प्रकार समस्त मुनि, मनु तथा देवता आदि मेरे कलांशरूप हैं। मैं समस्त शरीरी में व्याप्त हूँ; तथापि उनके द्वारा संपादित होने वाले संपूर्ण कर्मों से निर्लिप्त हूँ। मेरा भक्त जीवन्मुक्त होता है तथा वह जन्म, मृत्यु और जरा का निवारण करने वाला है। भक्त संपूर्ण सिद्धों का स्वामी, श्रीमान, कीर्तिमान, विद्वान, कवि, बाईस प्रकार का सिद्ध और समस्त कर्मों का निराकरण करने वाला है। उस सिद्ध भक्त को मैं स्वयं प्राप्त होता हूँ; क्योंकि वह मेरे सिवा दूसरी किसी वस्तु की इच्छा ही नहीं करता। तात! सिद्धियों का साधन करने वाला सिद्ध उन सिद्धियों के ही भेद से बाईस प्रकार का होता है। मेरे मुख से उसका परिचय सुनो और सिद्धमंत्र ग्रहण करो। अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, कामावसायिता, दूरश्रवण, परकायप्रवेश, मनोयायित्व, सर्वज्ञत्वव, अभीष्ट सिद्धि, अग्निस्तम्भ, जलस्तम्भ, चिरजीवित्व, वायुस्तम्भ, क्षुत्पिपासानिद्रास्तम्भन (भूख-प्यास तता नींद का स्तम्भन), वाक् सिद्धि, इच्छानुसार मृत प्राणी को बुला लेना, सृष्टिकरण और प्राणों का आकर्षण- ये बाईस प्रकार की सिद्धियाँ हैं। सिद्धमंत्र इस प्रकार है- ‘ऊँ सर्वेश्वरेश्वराय सर्वविघ्नविनाशिने मधुसूदनाय स्वाहा’। यह मंत्र अत्यंत गूढ़ है और सबकी मनोवाञ्छा पूर्ण करने के लिए कल्पवृक्ष के समान है। सामवेद मे इसका वर्णन है। यह सिद्धों की संपूर्ण सिद्धियों को देने वाला है। इस मंत्र के जप से योगी, मुनीन्द्र और देवता सिद्ध होते हैं। सत्पुरुषों को एक लाख जप करने से ही यह मंत्र सिद्ध हो जाता है। यदि नारायण क्षेत्र में हविष्यान्नभोजी होकर इसका जप किया जाय तो शीघ्र सिद्ध प्राप्त होती है। तात! तुम काशी के मणिकर्णिका तीर्थ में जाकर इसका जप करो। मैं तुम्हें नारायण क्षेत्र बतलाता हूँ, सुनो। गंगा के जलप्रवाह से चार हाथ तक की भूमि को ‘नारायणक्षेत्र’ कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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