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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 60-61
गुरु ने कहा- दूत! तू जाकर नहुष से कह दे कि ‘महाराज! यदि तुम शची का उपभोग करना चाहते हो तो एक ऐसी सवारी पर चढ़कर रात में आना, जिसका आज से पहले किसी ने उपयोग न किया हो। सप्तर्षियों के कंधों पर अपनी सुन्दर शिविका (पालकी) रख उत्तम वेश-भूषा से सज-धजकर उसी पर आरूढ़ हो तुम्हें यहाँ तक यात्रा करनी चाहिए।’ बृहस्पति जी की बात सुनकर दूत ने नहुष के पास जा उनका संदेस कह सुनाया। सुनकर नहुष हँस पड़ा और अपने सेवक से बोला- ‘जाओ, जाओ, जल्दी जाओ और सप्तर्षियों को यहाँ बुला लाओ। उन सबके साथ मिलकर कोई उपाय करूँगा। तुम अभी जाओ।’ राजा का आदेश पाकर दूत सप्तर्षियों के समीप गया और नहुष ने जो कुछ कहा था, वह सब उसने उन सबसे कह सुनाया। दूत की बात सुनकर सप्तर्षि प्रसन्नतापूर्वक नहुष के पास गये। उन सबको आया देख राजा ने प्रणाम किया और आदरपूर्वक कहा। नहुष बोला- आप लोग ब्रह्मा जी के पुत्र हैं, ब्रह्मतेज से प्रकाशित होते हैं और सदा ब्रह्मा जी के समान ही भक्तवत्सल हैं। निरन्तर भगवान नारायण की उपासना में लगे रहते हैं। शुद्ध सत्त्व ही आपका स्वरूप है। आप मोह और मात्सर्य से रहित हैं। दर्प और अहंकार आपको छू नहीं सके हैं। आप सब लोग सदा भगवान नारायण के समान तेजस्वी और यशस्वी हैं। गुण, कृपा, प्रेम, और वरदान सभी दृष्टियों से निश्चय ही आप श्रीहरि के तुल्य हैं। ऐसा कहकर राजा उनके चरणों में प्रणाम और स्तुति करने लगा। राजा को कातर हुआ देख वे परम हितैषी ऋषि उससे बोले। ऋषियों ने कहा- बेटा! तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो; हम सब कुछ देने में समर्थ हैं। हमारे लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। इंद्रपद, मनु का पद, दीर्घायु, सातों द्वीपों का प्रभुत्व, चिरकाल तक बना रहने वाला अतिशय सुख, संपूर्ण सिद्धियाँ, परम दुर्लभ समस्त ऐश्वर्य तथा जो तपस्या से भी नहीं मिल सकती, वह हरिभक्ति अथवा मुक्ति भी हम तुम्हें दे सकते हैं। वत्स! बोलो, इस समय तुम्हें किस वस्तु की इच्छा है? वह सब तुम्हें देकर ही हम तपस्या के लिए जाएँगे। जो क्षण श्रीकृष्ण की आराधना के बिना व्यतीत होता है, वह लाख युगों के समान है अर्थात श्रीकृष्ण भजन के बिना यदि एक क्षण भी व्यर्थ बीता तो समझाना चाहिए कि हमारे एक लाख युग व्यर्थ बीत गये। जो दिन श्रीहरि के ध्यान और सेवन से शून्य रह गया, वही सबसे बड़ा दुर्दिन है। जो मनुष्य श्रीहरि की सेवा छोड़कर किसी दूसरे विषय को पाने की इच्छा रखता है, वह मनोवाञ्छित अमृत को त्यागकर अपने ही विनाश के लिए मानो विष खाता है[1]। ब्रह्मा, शिव, धर्म, विष्णु, महाविष्णु (महानारायण), गणेश, सूर्य, शेष और सनकादि मुनि- ये दिन-रात प्रसन्नतापूर्वक जिनके चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं, उन जन्म, मृत्यु और जरारूप व्याधि को हर लेने वाले श्रीकृष्ण में हमलोग सदा अनुरक्त रहते हैं। सप्तर्षियों की यह बात सुनकर राजेश्वर नहुष लज्जित हो गया। उसका सिर झुक गया, तथापि माया से मोहितचित्त होने के कारण वह बोला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ युगलक्षसमं यच्च क्षणं कृष्णार्चनं विना। तद्दिनं दुर्दिनं यत्तद्ध्यानसेवनवर्जितम्।।
विना तत्सेवनं यो हि विषयान्यं च वाञ्छति। विषमत्ति प्रणाशाय विहायामृतमीप्सितम्।।-(60।32-33)
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