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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 56-59
वह पुरुष देवकर्म तथा पितृकर्म में सम्मिलित होने योग्य नहीं रह जाता। वह लोगों में अधम, निन्दित और अपयश का भागी समझा जाता है। जो दूसरे दिन रजस्वला स्त्री के साथ कामभाव से समागम करता है, उसे अवश्य ही गो-हत्या का पाप लगता है। वह आजीवन देवता, पितर और ब्राह्मण की पूजा के लिए अपना अधिकार खो बैठता है, मनुष्यता से गिर जाता है तथा कलंकित हो जाता है। जो तीसरे दिन रजस्वला पत्नी के साथ समागम करता है, वह मूढ़ भ्रूण-हत्या का भागी होता है; इसमें संशय नहीं है। पहले बताये हुए लोगों की भाँति वह भी पतित होकर संपूर्ण कर्मों का अनधिकारी हो जाता है। चौथे दिन रजस्वला असत शूद्रा कही जाती है; अतः विद्वान पुरुष उस दिन भी उसके पास न जाए। मूढ़! मैं तेरी माता हूँ। यदि तू माता को भी बलपूर्वक ग्रहण करना चाहता है तो आज छोड़ दे। ऋतुकाल बीत जाने पर जैसी तेरी मर्जी हो, करना। इतने पर भी नहुष नहीं माना और बोला- 'देवरमणी सदा ही शुद्ध होती है। तुम अपने घर चलो। मैं अभी आता हूँ'- यों कहकर राजा नहुष प्रसन्नतापूर्वक रत्नमय रथ पर आरूढ़ हो नन्दनवन में शची के भवन की ओर गया; परंतु शची अपने घर में नहीं लौटी। वह सीधे गुरु बृहस्पति के घर चली गयी। वहाँ जाकर उसने देखा गुरुदेव कुशासन पर विराजमान हैं। तारा देवी उनके चरणारविन्दों की सेवा कर रही हैं। वे ब्रह्मतेज से प्रकाशमान हैं और हाथ में जप माला लिए अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के नाम का निरन्तर जप कर रहे हैं। वे श्रीकृष्ण सबसे उत्कृष्ट, परमानन्दमय, परमात्मा एवं ईश्वर हैं। निर्गुण, निरीह, स्वतंत्र, प्रकृति से परे, स्वेच्छामय परब्रह्म हैं तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं। उनके चिन्तन में लगे और नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाते हुए गुरुदेव को शची ने धरती पर माथा टेककर प्रणाम किया। उस समय भक्ति के समुद्र में मग्न हुई शची रोती और आँखों से आँसू बहाती थी। साथ ही वह शोक सागर में भी डूब रही थी। भयभीत शची व्यथित हृदय से अपने ब्रह्मनिष्ठ गुरु कृपानिधान बृहस्पति की स्तुति करने लगी। शची बोली- महाभाग! मैं भयभीत हो आपकी शरण में आयी हूँ। आप ईश्वर हैं और मैं शोकसागर में डूबती हुई आपकी दासी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। गुरु असमर्थ हो या समर्थ, बलवान हो या निर्बल, वह अपने शिष्यों, पत्नी तथा पुत्रों पर सदा शासन करने में समर्थ है। प्रभो! आपने अपने शिष्य को उसके राज्य से दूर कर दिया। बहुत दिन हुए, अब तो उसके दोष की शान्ति हो गयी होगी। अतः कृपा कीजिए। कृपानिधे! मैं अनाथ हूँ। मेरे लिए सब दिशाएँ सूनी हो गयी हैं। अमरावतीपुरी भी सूनी है तथा मेरा निवासस्थान भी सब प्रकार की संपत्तियों से शून्य है। मेरी इस अवस्था पर दृष्टिपात कीजिए और मुझे संकट से बचाइये। मुझे एक डाकू अपना ग्रास बनाना चाहता है। आप मेरी रक्षा कीजिए। अपने किंकर देवराज को यहाँ ले आइये। चरणों की धूल देकर उन्हें शुभाशीर्वाद से अनुगृहीत कीजिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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