विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 56-59
राजन! सब कुछ भगवान श्रीहरि को समर्पण कर देना संन्यासियों का धर्म है। संन्यासी एकमात्र गेरुआ वस्त्र, दण्ड और मिट्टी का कमण्डलु धारण करता है। सर्वत्र समान दृष्टि रखता और सदा श्रीनारायण का स्मरण करता है। नित्य भ्रमण करता है। किसी के घर में नहीं टिकता और लोभवश किसी को विद्या और मंत्र का उपदेश नहीं देता। संन्यासी अपने लिए आश्रम नहीं बनाता। दूसरी किसी वासना को मन में स्थान नहीं देता; दूसरे किसी का साथ नहीं करता और आसक्ति एवं मोह से दूर रहता है। वह लोभवश स्वादिष्ट भोजन नहीं करता, स्त्री का मुख नहीं देखता तथा व्रत में अटल रहकर किसी गृहस्थ पुरुष से मनचाही भोज्य वस्तु के लिए याचना भी नहीं करता। ब्रह्मा जी ने यही संन्यासियों का धर्म बताया है। बेटा! यह तुम्हें धर्म की बात बतायी है। अब तुम सुखपूर्वक अपने स्थान को जाओ। ऐसा कहकर मार्ग में मिली हुई इंद्राणी चुप हो रहीं और राजा नहुष गर्दन टेढ़ी करके उनसे बोला। नहुष ने कहा- देवि! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब उलटी बात है। यथार्थ वैदिक धर्म क्या है? यह मैं बताता हूँ, सुनो। सुरसुंदरि! इसमें संदेह नहीं कि सबको अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है; परंतु स्वर्ग, पाताल तथा दूसरे किसी द्वीप में जो कर्म किए जाते हैं, उनका फल नहीं भोगना पड़ता। पुण्य क्षेत्र भारत में शुभाशुभ कर्म करके कर्मी मनुष्य उस कर्म के बन्धन में बँधकर परलोक में उसके फल को भोगता है। हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र तक का पवित्र देश 'भारत' कहा गया है। वह सब स्थानों में श्रेष्ठ तथा मुनियों की तपोभूमि है। वहाँ जन्म लेकर जीव भगवान विष्णु की माया से वञ्चित हो सदा विषय सेवन करता है और श्रीहरि की सेवा को भुला देता है। जो भारत वर्ष में महान पुण्य करता है, वह पुण्यात्मा पुरुष स्वर्ग को जाता है। वहाँ स्वर्गीय कन्याओं को अपनाकर चिरकाल तक उनके साथ आनन्द भोगता है। मनुष्य मानव शरीर का त्याग करके स्वर्ग में आता है; किंतु सुंदरि! मैं अपने शरीर के साथ यहाँ आया हूँ। देखो, मेरा कैसा पुण्य है? अनेक जन्मों के पुण्य से मैं अभीष्ट स्वर्ग में आया हूँ। तदनन्तर न जाने किस पुण्य से तुमसे मेरा साक्षात्कार हुआ है। यह कर्म का स्थान नहीं, अपने कर्मों के भोग का स्थान है। यों करहकर कामासक्त नहुष ने फिर बहुत सी युक्तियों के द्वारा पुनः अपने उसी पापपूर्ण प्रस्ताव को दुहराया। तब शची बोलीं- हाय! इस विवेक शून्य, कर्तव्याकर्तव्य को न जानने वाले, मूढ़, कामातुर पुरुष की कितनी बातें आज मुझे सुनने पड़ेगीं! काम ने जिनके चित्त को चुरा लिया है, वे विवेकशून्य काममत्त कामी तथा मधुमत्त एवं सुरामत्त मनुष्य अपनी मौत को भी नहीं गिनते। ओ मतवाले नरेश! आज मुझे छोड़ दे। मैं तेरे लिए माता के समान और रजस्वला हूँ। आज मेरी ऋतु का प्रथम दिन है। पहले दिन रजस्वला स्त्री चाण्डाली के समान मानी जाती है। दूसरे दिन म्लेच्छा और तीसरे दिन धोबिन के समान होती है। चौथे दिन वह अपने पति के लिए शुद्ध होती है; परंतु देव कार्य और पितृ कार्य के लिए वह उस दिन भी शुद्ध नहीं मानी जाती। दूसरे के लिए वह उस दिन असत शूद्रा के समान होती है। जो पहले दिन अपनी रजस्वला पत्नी के साथ समागम करता है, वह ब्रह्महत्या के चौथे अंश का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |