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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 42
शैलराज! यों कहकर धर्मराज चुपचाप खड़े हो गये। पद्मा उनकी परिक्रमा और प्रणाम करके अपने घर को चली गयी। धर्म भी उसे आशीर्वाद दे अपने धाम को गये और प्रत्येक सभा में पतिव्रता की प्रशंसा करने लगे। पद्मा अपने तरुण पति के साथ सदा एकान्त में मिलन-सुख का अनुभव करने लगी। पीछे उसके दस श्रेष्ठ पुत्र हुए जो उसके पति से भी अधिक गुणवान थे। गिरिराज! इस प्रकार मैंने सारा पुरातन इतिहास कह सुनाया। अनरण्य ने अपनी पुत्री देकर समस्त सम्पत्ति की रक्षा कर ली। तुम भी सबके ईश्वर भगवान शिव को अपनी कन्या देकर अपने समस्त बन्धुओं तथा सम्पूर्ण सम्पत्ति की रक्षा करो। शैलराज! एक सप्ताह बीतने पर अत्यन्त दुर्लभ शुभ क्षण में, जब चन्द्रमा लग्नेश होकर लग्न में अपने पुत्र बुध के साथ विराजमान होंगे; रोहिणी का संयोग पाकर प्रसन्नता का अनुभव करते होंगे; चन्द्र और तारा सर्वथा शुद्ध होंगे, मार्गशीर्ष मास का सोमवार होगा; लग्न सब प्रकार के दोषों से रहित, समस्त शुभ ग्रहों की दृष्टि से लक्षित और असत ग्रहों से शून्य होगा; उत्तम संतानप्रद, पतिसौभाग्यदायक, वैधव्यनिवारक, जन्म-जन्म में सुख प्रदान करने वाला तथा प्रेम का कभी विच्छेद न होने देने वाला अत्यन्त श्रेष्ठतम योग उपस्थित होगा; उस समय तुम अपनी पुत्री मूलप्रकृति ईश्वरी जगदम्बा को जगत्पिता महादेव जी के हाथ में देकर कृतकृत्य हो जाओ। गिरिराज! कल्पान्तर की बात है; वह मूलप्रकृति ईश्वरी भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से दक्षकन्या सती के रूप में आविर्भूत हुई। दक्ष ने उस देवी को विधि-विधान के साथ शूलपाणि शिव के हाथ में दे दिया। तदनन्तर मेरे पिता के यज्ञ में, जहाँ समस्त देवताओं की सभा जुड़ी हुई थी, दक्ष का उन शूलपाणि महादेव जी के साथ सहसा महान कलह हो गया। उस कलह से रुष्ट हो त्रिनेत्रधारी शिव ब्रह्मा जी को नमस्कार करके चले गये। दक्ष के मन में भी रोष था; अतः वे भी अपने गणों के साथ उसी क्षण अपने घर को चल दिये। घर जाकर दक्ष ने रोषपूर्वक ही यज्ञ की सामग्री एकत्र की और उसके द्वारा महान यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में उन्होंने द्वेषवश शूलपाणि शंकर को भाग नहीं दिया। यह देख सती के मन में पिता के प्रति बड़ा क्रोध हुआ। उसकी आँखें लाल हो गयीं। उसने व्यथित-हृदय से पिता को बहुत फटकारा और यज्ञ स्थान से उठकर वह माता के पास गयी। उस परात्परा देवी को तीनों कालों का ज्ञान था; अतः उसने भविष्य में घटित होने वाली घटना का वहाँ वर्णन किया। यज्ञ का विध्वंस, पिता दक्ष का पराभव, यज्ञ स्थान से देवताओं, मुनियों, ऋत्विजों तथा पर्वतों का पलायन, शंकर के सैनिकों की विजय, अपनी मृत्यु, पत्नी के विरह से आतुर-चित्त होकर शोकवश पति का पर्यटन, उनके नेत्रों के जल से सरोवर का निर्माण, भगवान जनार्दन के समझाने से उनका धैर्य धारण करना, दूसरे शरीर से पुनः शिव की प्राप्ति, उनके साथ विहार तथा अन्य सब भावी वृत्तान्त बताकर सती माता और बहनों के मना करने पर भी दुःखी हो घर से चली गयी। वह सिद्धियोगिनी थी। अतः योगबल से सबकी दृष्टि से ओझल हो गयी। गंगा जी के तट पर जाकर शंकर के ध्यान और पूजन के पश्चात उनके चरणारविन्दों का चिन्तन करती हुई सुन्दरी सती ने शरीर को त्याग दिया और गन्धमादन पर्वत की गुफा में विद्यमान उस दिव्य विग्रह में प्रवेश किया, जिसके द्वारा उसने पूर्वकाल में दैत्यों के समस्त कुल का संहार किया था। वह घटना देख सब देवता अत्यन्त विस्मित हो हाहाकार कर उठे। शंकर के सैनिक दक्ष-यज्ञ का विनाश तथा सबका पराभव करके शोक से व्याकुल हो लौट गये और शीघ्र ही सारा वृत्तान्त अपने स्वामी से कह सुनाया। वह समाचार सुनकर समस्त रुद्र गणों से घिरे हुए संहारकारी महेश्वर गंगा जी के तट पर गये, जहाँ देवी सती का शरीर पड़ा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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