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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 42
पद्मा ने कहा– भगवन! क्या आप ही सबके समस्त कर्मों के साक्षी, सबके भीतर रहने वाले, सर्वात्मा, सर्वज्ञ और सर्वतत्त्ववेत्ता धर्म हैं? फिर मेरे मन को जानने के लिये मुझ दासी की विडम्बना क्यों करते हैं? धर्मदेव! आपके प्रति मैंने जो कुछ किया है, वह मेरा अपराध है। प्रभो! मैंने स्त्री-स्वभाववश आपको न जानने के कारण क्रोधपूर्वक शाप दे दिया है। उस शाप की क्या व्यवस्था होगी; यही इस समय मेरा चिन्ता का विषय है। आकाश, सम्पूर्ण दिशाएँ और वायु भी यदि नष्ट हो जाएँ तो भी पतिव्रता का शाप कभी नष्ट नहीं हो सकता[1]। मेरे शाप से यदि आप नष्ट हो जाते हैं तो सम्पूर्ण सृष्टि का ही नाश हो जायेगा। यह सोचकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही हूँ; तथापि आपसे कहती हूँ। देवेश्वर! जैसे पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्ण होते हैं, उसी प्रकार सत्ययुग में आप चारों चरणों से परिपूर्ण रहेंगे। उस युग में सर्वत्र और सर्वदा दिन-रात आप विराजमान होंगे। किंतु भगवन! त्रेतायुग आने पर आपके एक चरण का नाश हो जायेगा। प्रभो! द्वापर में दो पैर क्षीण होंगे और कलियुग में आपका तीसरा पैर भी नष्ट हो जायेगा। कलि के अन्त में आपका चौथा चरण भी छिप जायेगा। फिर सत्ययुग आने पर आप चारों चरणों से परिपूर्ण हो जायेंगे। सत्ययुग में आप सर्वव्यापी होंगे और उससे भिन्न युगों में भी कहीं-कहीं पूर्णरूप में विद्यमान रहेंगे। प्रभो! जहाँ आपका स्थान या आधार होगा, उसे बताती हूँ, सुनिये। सम्पूर्ण वैष्णव, यति, ब्रह्मचारी, पतिव्रता स्त्री, ज्ञानी पुरुष, वानप्रस्थ, भिक्षु (संन्यासी), धर्मशील राजा, साधु-संत, श्रेष्ठ वैश्यजाति तथा सत्पुरुषों के संसर्ग में रहने वाले द्विज, सेवक, शूद्र– इन सबमें आप सदा पूर्णरूप से विराजमान रहेंगे। युग-युग में जहाँ भी पुण्यात्मा पुरुष होंगे, वे आपके आधार रहेंगे। पीपल, वट, बिल्व, तुलसी, चन्दन– इन वृक्षों पर; दीक्षा, परीक्षा, शपथ, गोशाला और गोपद भूमियों में; विवाह में, फूलों में, देव वृक्षों में, देवालयों में, तीर्थों में तथा साधु पुरुषों के गृहों में आपका सदा निवास होगा। वेद-वेदांगों के श्रवणकाल में, जल में, सभाओं में, श्रीकृष्ण के नाम और गुणों की कीर्तन, श्रवण तथा गान के स्थानों में; व्रत, पूजा, तप, न्याय, यज्ञ एवं साक्षी के स्थानों में; गोशालाओं में तथा गौओं में विद्यमान रहकर आप अपने को पूर्णरूप से प्रतिष्ठित देखेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आकाशोऽसौ दिशः सर्वा यदि नश्यन्ति वायवः। तथापि साध्वीशापस्तु न नश्यति कदाचन।-(42। 34)
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