विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 37-38
जब उन्होंने युवावस्था में प्रवेश किया, तब उन जगदम्बा को सम्बोधित करके आकाशवाणी ने कहा– ‘शिवे! तुम कठोर तपस्या द्वारा भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करो; क्योंकि तपस्या के बिना ईश्वर को पाना अथवा उनके अंश से गर्भ धारण करना असम्भव है।’ यह आकाशवाणी सुनकर यौवन के गर्व से भरी हुई पार्वती हँसकर चुप हो रहीं। वह मन-ही-मन सोचने लगीं कि ‘जो मेरे दूसरे जन्म की अस्थि और भस्म को धारण करते हैं; वे इस जन्म में मुझे सयानी हुई देख कैसे नहीं ग्रहण करेंगे। जो चतुर होकर भी मेरे शोक से समूचे ब्रह्माण्ड में भटकते फिरे; वे ही मुझ परम सुन्दरी को अपनी आँखों से देख लेने पर क्यों नहीं ग्रहण करेंगे? जिन कृपानिधान ने मेरे लिये दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर डाला था; वे अपनी जन्म-जन्म की पत्नी मुझ पार्वती को क्यों नहीं ग्रहण करेंगे? पूर्वजन्म से ही जो जिसकी पत्नी है और जिसका जो पति है, उन दोनों में यहाँ भेद कैसे हो सकता है? क्योंकि प्रारब्ध को कोई पलट नहीं सकता।’ अत्यन्त अभिमान के कारण अपने को समस्त रूप और गुणों का आधार मानकर साध्वी शिवा ने तप नहीं किया। उन्होंने शिव को ईश्वर नहीं समझा। ‘समस्त सुन्दरियों में मुझसे बढ़कर सुन्दरी दूसरी कोई नहीं है’– यह धारणा हृदय में लेकर शिवादेवी गर्ववश तपस्या में नहीं प्रवृत्त हुईं। वे यही सोचती थीं कि पुरुष अपनी स्त्रियों के रूप, यौवन तथा वेशभूषा का ग्राहक है। शिव मेरा नाम सुनते ही बिना तपस्या के मुझे ग्रहण कर लेंगे। मन में यह विश्वास लेकर गिरिजा हिमवान के घर में रहती थीं और दिन-रात सखी-सहेलियों के बीच खेल-कूद में मतवाली रहा करती थीं। इसी समय शीघ्रतापूर्वक दूत ने गिरिराज के भवन में आकर दोनों हाथ जोड़ उनके सामने मधुर वाणी में कहा। दूत बोला– शैलराज! उठिये, उठिये। अक्षयवट के पास जाइये। वहाँ वृषभवाहन महादेव जी अपने गणों के साथ पधारे हैं। महाराज! आप भक्तिभाव से मस्तक झुका उन्हें मधुपर्क आदि देकर उन इन्द्रियातीत देवेश्वर का पूजन कीजिये। महादेव जी सिद्धिस्वरूप, सिद्धों के स्वामी, योगीन्द्रों के गुरु के भी गुरु, मृत्युंजय, काल के भी काल तथा सनातन ब्रह्मज्योति हैं। वे प्रभु परमात्मस्वरूप, सगुण तथा निर्गुण हैं। उन्होंने भक्तों के ध्यान के लिये निर्मल महेश्वर रूप धारण किया है। दूत की यह बात सुनकर हिमवान प्रसन्नतापूर्वक उठे और मधुपर्क आदि साथ ले भगवान शंकर के समीप गये। दूत की पूर्वोक्त बात सुनकर देवी शिवा के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उन्होंने अपने मन में यही माना कि महेश्वर मेरे ही लिये आये हैं। यही जानकर उन्होंने विविध दिव्य वस्त्रों तथा दिव्य रत्नालंकारों एवं मालाओं के द्वारा अपने सम्पूर्ण अंगों को सुसज्जित किया। तत्पश्चात अपने अनुपम रूप को देखकर पार्वती ने मन-ही-मन शंकर जी का ध्यान किया। विशेषतः स्वामी के चरणकमलों का वे चिन्तन करने लगीं। उस समय शिव को छोड़कर पिता, माता, बन्धु-बान्धव, साध्वी गर्ग तथा सहोदर भाई किसी को भी उन्होंने अपने मन में स्थान नहीं दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |