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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 6
देवेश्वरो! भक्तों का भक्तिपूर्वक दिया हुआ जो द्रव्य है, उसको मैं बड़े प्रेम से ग्रहण करता हूँ, परंतु अभक्तों की दी हुई कोई भी वस्तु मैं नहीं खाता। निश्चय ही उसे राजा बलि ही भोगते हैं। जो अपने स्त्री-पुत्र आदि स्वजनों को त्यागकर दिन-रात मुझे ही याद करते हैं, उनका स्मरण मैं भी तुम लोगों को त्यागकर अहर्निश किया करता हूँ। जो लोग भक्तों, ब्राह्मणों तथा गौओं से द्वेष रखते हैं, यज्ञों और देवताओ की हिंसा करते हैं, वे शीघ्र ही उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि में तिनके। जब मैं उनका घातक बनकर उपस्थित होता हूँ, तब कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर पाता[1]। देवताओ! मैं पृथ्वी पर जाऊँगा। अब तुम लोग भी अपने स्थान को पधारो और शीघ्र ही अपने अंशरूप से भूतल पर अवतार लो। ऐसा कहकर जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर मधुर, सत्य एवं समयोजित बातें कहीं– ‘गोपो और गोपियो! सुनो। तुम सब-के-सब नन्दराय जी का जो उत्कृष्ट व्रज है, वहाँ जाओ (उस व्रज में अवतार ग्रहण करो)। राधिके! तुम भी शीघ्र ही वृषभानु के घर पधारो। वृषभानु की प्यारी स्त्री बड़ी साध्वी हैं। उनका नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री हैं और लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। वास्तव में वे पितरों की मानसी कन्या हैं तथा नारियों में धन्या और मान्या समझी जाती हैं। पूर्वकाल में दुर्वासा के शाप से उनका व्रजमण्डल में गोप के घर में जन्म हुआ है। तुम उन्हीं कलावती की पुत्री होकर जन्म ग्रहण करो। अब शीघ्र नन्दव्रज में जाओ। कमलानने! मैं बालकरूप से वहाँ आकर तुम्हें प्राप्त करूँगा। राधे! तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो और मैं भी तुम्हें प्राणों से भी बढ़कर प्यारा हूँ। हम दोनों का कुछ भी एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। हम सदैव एक-रूप हैं।’ मुने! यह सुनकर श्रीराधा प्रेम से विह्वल होकर वहाँ रो पड़ीं और अपने नेत्र-चकोरों द्वारा श्रीहरि के मुखचन्द्र की सौन्दर्य-सुधा का पान करने लगीं। ‘गोपो और गोपियो! तुम भूतल पर श्रेष्ठ गोपों के शुभ घर-घर में जन्म लो।’ श्रीकृष्ण की यह बात पूरी होते ही वहाँ सब लोगों ने देखा, एक उत्तम रथ (विमान) आ गया। वह श्रेष्ठ मणिरत्नों के सारतत्त्व तथा हीरक से विभूषित था। लाखों श्वेत चँवर तथा दर्पण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह अग्निशुद्ध सूक्ष्म गेरुए वस्त्रों से सजाया गया था। श्रेष्ठ रत्नों के बने हुए सहस्रों कलश उसकी श्रीवृद्धि कर रहे थे। पारिजात पुष्पों के हारों से उस विमान को सुसज्जित किया गया था। सोने का बना हुआ वह सुन्दर विमान अनुपम तेजःपुंजमय दिखायी देता था। उससे सैकड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था कि उस विमान पर बहुत-से पार्षद बैठे हुए थे। उस विमान में एक श्यामसुन्दर कमनीय पुरुष दृष्टिगोचर हुए, जिनके चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे थे। उन श्रेष्ठ पुरुष ने पीताम्बर पहन रखा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्त्रीपुत्रस्वजनांस्त्यक्त्वा ध्यायन्ते मामहर्निशम्। युष्मान् विहाय तान् नित्यं स्मराम्यहमहर्निशम्।।
द्वेष्टारो ये च भक्तानां ब्राह्मणानां गवामपि। क्रतूनां देवतानां च हिंसां कुर्वन्ति निश्चितम्।।
तदाऽचिरं ते नश्यन्ति यथा वह्नौ तृणानि च। न कोऽपि रक्षिता तेषां मयि हन्तर्युपस्थिते।।-(श्रीकृष्णजन्मखण्ड 6। 58-60)
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