ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 29
आगे बढ़ने पर उन्हें शंकर जी की सभा दिखायी पड़ी, जो बहुत-से सिद्धगणों को व्याप्त, महर्षियों द्वारा सेवित तथा पारिजात-पुष्पों के गन्ध से युक्त वायु द्वारा सुवासित थी। उस सभा में उन्होंने देवेश्वर शंकर के दर्शन किये। वे रत्नाभरणों से सुसज्जित हो रत्नसिंहासन पर विराजमान थे। उनके ललाट पर चन्द्रमा सुशोभित हो रहा था। वे बाघाम्बर पहने तथा त्रिशूल और पट्टिश धारण किये हुए थे। उनका शरीर विभूति से सुशोभित था। वे सर्प का यज्ञोपवीत पहने थे तथा महान कल्याणस्वरूप, कल्याण करने वाले, कल्याण के कारण, कल्याण के आश्रय स्थान, आत्मा में रमण करने वाले, पूर्णकाम और करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाशाली थे। उनका मुख प्रसन्न था, जिस पर मन्द मुस्कान की अद्भुत छटा बिखर रही थी, वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये अधीर हो रहे थे। वे सनातन ज्योतिःस्वरूप, लोकों के लिये अनुग्रह के मूर्त रूप, जटाधारी, सती की हड्डियों से शोभित, तपस्याओं के फल देने वाले तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं के दाता थे। उनका वर्ण शुद्ध स्फटिक के सदृश उज्ज्वल था। उनके पाँच मुख और तीन नेत्र थे। वे तत्त्वमुद्रा द्वारा शिष्यों को गुह्य ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे। योगीन्द्र उनके स्तवन में तथा बड़े-बड़े सिद्ध उनकी सेवा में नियुक्त थे। श्रेष्ठ पार्षद श्वेत चँवरों द्वारा निरन्तर उनकी सेवा कर रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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