ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 29
वे बुढ़ापा और मृत्यु का हरण करने वाले, गुणातीत, स्वेच्छामय, परिपूर्णतम, परब्रह्म के ध्यान में निमग्न थे, जो ज्योतीरूप सबके आदि, प्रकृति से परे और परमानन्दमय हैं। उन श्रीकृष्ण का ध्यान करते समय उनके शरीर में रोमांच हो रहा था तथा वे आँखों में आँसू भरे उत्तम स्वर से उनकी गुणावली का गान कर रहे थे और भूतेश्वर, रुद्रगण तथा क्षेत्रपाल उन्हें घेरे हुए थे। उन्हें देखकर परशुराम ने बड़े आदर के साथ सिर झुकाकर प्रणाम किया। तत्पश्चात शिव जी के वामभाग में कार्तिकेय, दाहिनी ओर गणेश्वर, सामने नन्दीश्वर, महाकाल और वीरभद्र तथा उनकी गोद मे उनकी प्रियतमा पत्नी गिरिराजनन्दिनी गौरी को देखा। उन सबको भी परशुराम ने बड़े हर्ष के साथ भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर नमस्कार किया। उस समय शिवजी का दर्शन करके परशुराम परम संतुष्ट हुए। शोक से पीड़ित तो वे थे ही; अतः आँखों में आँसू भरकर अत्यन्त कातर हो हाथ जोड़कर शान्तभाव से दीन एवं गद्गद वाणी के द्वारा शिवजी की स्तुति करने लगे। परशुराम बोले– ईश! मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, परंतु स्तवन करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। आप अक्षर और अक्षर के कारण तथा इच्छारहित हैं, तब मैं आपकी क्या स्तुति करूँ? मैं मन्दबुद्धि हूँ; मुझमें शब्दों की योजना करने का ज्ञान तो है नहीं और चला हूँ देवेश्वर की स्तुति करने। भला, जिनका स्तवन करने की शक्ति वेदों में नहीं है, उन आपकी स्तुति करके कौन पार पा सकता है? आप मन, बुद्धि और वाणी के अगोचर, सार से भी साररूप, परात्पर, ज्ञान और बुद्धि से असाध्य, सिद्ध, सिद्धों द्वारा सेवित, आकाश की तरह आदि, मध्य और अन्त से हीन तथा अविनाशी, विश्व पर शासन करने वाले, तन्त्ररहित, स्वतन्त्र, तन्त्र के कारण, ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य, साधन करने में अत्यन्त सुगम और दया के सागर हैं। दीनबन्धो! मैं अत्यन्त दीन हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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