ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 8
वह डंडा लिये हुए था और उसकी कमर झुक गयी थी। वह तपस्वी होते हुए भी अशान्त था। उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे और वह बड़ी शक्ति लगाकर उन दोनों को प्रणाम तथा उनका स्तवन कर रहा था। उसके अमृत से भी उत्तम वचन सुनकर नीलकण्ठ महादेवजी प्रसन्न हो गये। तब वे मुस्कराकर परम प्रेम के साथ उससे बोले। शंकर जी ने कहा– वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ विप्रवर! इस समय मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपका घर कहाँ है और आपका नाम क्या है? इसे शीघ्र बतलाइये। पार्वती जी बोलीं– विप्रवर! कहाँ से आपका आगमन हुआ है? मेरा परम सौभाग्य था जो आप यहाँ पधारे। आप ब्राह्मण अतिथि होकर मेरे घर पर आये हैं, अतः आज मेरा जन्म सफल हो गया। द्विजश्रेष्ठ! अतिथि के शरीर में देवता, ब्राह्मण और गुरु निवास करते हैं; अतः जिसने अतिथि का आदर-सत्कार कर लिया, उसने मानो तीनों लोकों की पूजा कर ली। अतिथि के चरणों में सभी तीर्थ सदा वर्तमान रहते हैं, अतः अतिथि के चरण-प्रक्षालन के जल से निश्चय ही गृहस्थ को तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है। जिसने अपनी शक्ति के अनुसार यथोचित रूप से अतिथि की पूजा कर ली, उसने मानो सभी तीर्थों में स्नान कर लिया तथा सभी यज्ञों में दीक्षा ग्रहण कर ली। जिसने भारतवर्ष में भक्तिपूर्वक अतिथि का पूजन कर लिया, उसके द्वारा मानो भूतल पर सम्पूर्ण महादान कर लिये गये; क्योंकि वेदों में वर्णित जो नाना प्रकार के पुण्य हैं, वे तथा उनके अतिरिक्त अन्य पुण्यकर्म भी अतिथि-सेवा की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते। इसलिये जिसके घर से अतिथि अनादृत होकर लौट जाता है, उस गृहस्थ के पितर, देवता, अग्नि और गुरुजन भी तिरस्कृत हो उस अतिथि के पीछे चले जाते हैं। जो अपने अभीष्ट अतिथि की अर्चना नहीं करता, वह बड़े-बड़े पापों को प्राप्त करता है। ब्राह्मण ने कहा– वेदज्ञे! आप तो वेदों के ज्ञान से सम्पन्न हैं, अतः वेदोक्त विधि से पूजन कीजिये। माता! मैं भूख-प्यास से पीड़ित हूँ। मैंने श्रुतियों में ऐसा वचन भी सुना है कि जब मनुष्य व्याधियुक्त, आहार रहित तथा उपवास-व्रती होता है, तब वह स्वेच्छानुसार भोजन करना चाहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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