ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 66-67
विश्वपूजिते! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी, पालनकाल में रक्षारूपिणी तथा संहारकाल में विश्व का विनाश करने वाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं कालरात्रि, महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो; तुम मेरी दुर्लंघ्य माया हो, जिसने सम्पूर्ण जगत को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान पुरुष भी मोक्ष मार्ग को नहीं देख पाता। इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण किये गये दुर्गा के दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र का जो पूजा काल में पाठ करता है, उसे मनोवांछित सिद्धि प्राप्त होती है। जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है। जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ़ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ़, महाभयंकर शूल और महान ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है। पुत्र, प्रजा और पत्नी के भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र को पढ़े तो निस्संदेह विद्वान और धनवान हो जाता है। नारद जी ने कहा– समस्त धर्मों के ज्ञाता तथा सम्पूर्ण ज्ञान में विशारद भगवन! ब्रह्माण्ड-मोहन नामक प्रकृतिकवच का वर्णन कीजिये। भगवान नारायण बोले– वत्स! सुनो। मैं उस परम दुर्लभ कवच का वर्णन करता हूँ। पूर्वकाल में साक्षात श्रीकृष्ण ने ही ब्रह्मा जी को इस कवच का उपदेश दिया था। फिर ब्रह्मा जी ने गंगा जी के तट पर धर्म के प्रति इस सम्पूर्ण कवच का वर्णन किया था। फिर धर्म ने पुष्कर तीर्थ में मुझे कृपापूर्वक इसका उपदेश दिया, यह वही कवच है, जिसे पूर्वकाल में धारण करके त्रिपुरारि शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था और ब्रह्मा जी ने जिसे धारण करके मधु और कैटभ से प्राप्त होने वाले भय को त्याग दिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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