"ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन" के अवतरणों में अंतर

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[[कृष्ण|श्रीभगवान]] बोले- हे [[अर्जुन|पार्थ]]! अनन्‍य प्रेम से मुझ में आसक्तिचित्त तथा अनन्‍य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ<ref> मन और बुद्धि को अचलभाव से भगवान् में स्थिर करके नित्‍य-निरंतर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनका चिंतन करना ही योग में लग जाना है।</ref> तू जिस प्रकार से सम्‍पूर्ण विभूति, [[बल]], ऐश्र्वर्यादि गुणों से युक्‍त, सबके आत्‍मरूप से मुझको संशयरहित जानेगा,<ref>भगवान् नित्‍य है, सत्‍य हैं, सनातन हैं; वे सर्वगुणसम्‍पन्‍न, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वव्‍यापी, सर्वाधार और सर्वरूप है तथा स्वंय ही अपनीयोग माया से जगत के रूप में प्रकट होते हैं वस्तुतः उनके अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नही , वयक्त, अव्यक्त और सगुण निर्गुण सब वे ही है। इस प्रकार उन भगवान् के स्वरूप को निरभ्रानता और असंदिगधरूप से समझ लेना  ही समग्र भगवान को संषयरहित जानना है।</ref> उसको सुना।<ref>इस लोक और परलोक के किसी भी भोग के प्रति जिसके मन में तनिक भी आसक्ति नहीं रह गयी है तथा जिसका मन सब ओर से हटकर एकमात्र परम प्रेमास्‍पद, सर्वगुणसम्‍पन्‍न परमेश्र्वर में इतना अधिक आसक्‍त हो गया है कि जल के जरासे वियोग में परम व्‍याकुल हो जाने वाली मछली के समान जो क्षणभर भी भगवान् के वियोग और विस्‍मरण को सहन नहीं कर सकता,वह ‘मय्‍यासक्‍तमना:’ है। जो पुरुष संसार के सम्‍पूर्ण आश्रयों का त्‍याग करके समस्‍त आशाओं और भरोसों से मुंह मोड़कर एकमात्र भगवान् पर ही निर्भर करता है और सर्वशक्तिमान् भगवान् को ही परम आश्रय तथा परम गति जानकर एकमात्र उन्‍हीं के भरोसेपर सदा के लिये निश्चिंत हो गया है, वह ‘मदाश्रय:’ है।</ref> मै तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्त्व ज्ञान को<ref>भगवान् के निर्गुण निराकार तत्त्व को जो प्रभाव, माहात्म्य और रहस्यसहित यथार्थ ज्ञान है, उसे ज्ञान कहते है इसी प्रकार उनके सगुण निराकार और दिव्य साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, गुण, महत्त्व और प्रभाव सहित यथार्थ ज्ञानका नाम विज्ञान है।</ref> सम्पूर्णतया कहूंगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नही रह जाता।<ref> ज्ञान और विज्ञान के द्वारा भगवान् के समग्र स्वरूप की भलीभाँति उपलब्धि हो जाती है। यह विश्र-ब्रहाण्ड तो समग्र रूप का एक क्षुद्र-सा अंशमात्र है। जब मनुष्य भगवान् के समग्र रूप को जान लेता है, तब सवभावतः ही उसके लिये कुछ भी जानना बाकी नही रह जाता।</ref>  
 
[[कृष्ण|श्रीभगवान]] बोले- हे [[अर्जुन|पार्थ]]! अनन्‍य प्रेम से मुझ में आसक्तिचित्त तथा अनन्‍य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ<ref> मन और बुद्धि को अचलभाव से भगवान् में स्थिर करके नित्‍य-निरंतर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनका चिंतन करना ही योग में लग जाना है।</ref> तू जिस प्रकार से सम्‍पूर्ण विभूति, [[बल]], ऐश्र्वर्यादि गुणों से युक्‍त, सबके आत्‍मरूप से मुझको संशयरहित जानेगा,<ref>भगवान् नित्‍य है, सत्‍य हैं, सनातन हैं; वे सर्वगुणसम्‍पन्‍न, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वव्‍यापी, सर्वाधार और सर्वरूप है तथा स्वंय ही अपनीयोग माया से जगत के रूप में प्रकट होते हैं वस्तुतः उनके अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नही , वयक्त, अव्यक्त और सगुण निर्गुण सब वे ही है। इस प्रकार उन भगवान् के स्वरूप को निरभ्रानता और असंदिगधरूप से समझ लेना  ही समग्र भगवान को संषयरहित जानना है।</ref> उसको सुना।<ref>इस लोक और परलोक के किसी भी भोग के प्रति जिसके मन में तनिक भी आसक्ति नहीं रह गयी है तथा जिसका मन सब ओर से हटकर एकमात्र परम प्रेमास्‍पद, सर्वगुणसम्‍पन्‍न परमेश्र्वर में इतना अधिक आसक्‍त हो गया है कि जल के जरासे वियोग में परम व्‍याकुल हो जाने वाली मछली के समान जो क्षणभर भी भगवान् के वियोग और विस्‍मरण को सहन नहीं कर सकता,वह ‘मय्‍यासक्‍तमना:’ है। जो पुरुष संसार के सम्‍पूर्ण आश्रयों का त्‍याग करके समस्‍त आशाओं और भरोसों से मुंह मोड़कर एकमात्र भगवान् पर ही निर्भर करता है और सर्वशक्तिमान् भगवान् को ही परम आश्रय तथा परम गति जानकर एकमात्र उन्‍हीं के भरोसेपर सदा के लिये निश्चिंत हो गया है, वह ‘मदाश्रय:’ है।</ref> मै तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्त्व ज्ञान को<ref>भगवान् के निर्गुण निराकार तत्त्व को जो प्रभाव, माहात्म्य और रहस्यसहित यथार्थ ज्ञान है, उसे ज्ञान कहते है इसी प्रकार उनके सगुण निराकार और दिव्य साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, गुण, महत्त्व और प्रभाव सहित यथार्थ ज्ञानका नाम विज्ञान है।</ref> सम्पूर्णतया कहूंगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नही रह जाता।<ref> ज्ञान और विज्ञान के द्वारा भगवान् के समग्र स्वरूप की भलीभाँति उपलब्धि हो जाती है। यह विश्र-ब्रहाण्ड तो समग्र रूप का एक क्षुद्र-सा अंशमात्र है। जब मनुष्य भगवान् के समग्र रूप को जान लेता है, तब सवभावतः ही उसके लिये कुछ भी जानना बाकी नही रह जाता।</ref>  
  
हजारो मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है।<ref>भगवत्कृपा के फलसवरूप् मनुष्य -शरीर प्राप्त होने पर भी जनम-जनमान्तर के संस्कारो से भोगों में अतयनत आसक्ति और भगवान् में श्रद्धा-प्रेम को अभाव या कमी रहने के कारण अधिकांश  मनुष्य तो मार्ग की ओर मुंह ही नही करते।  जिसके पूर्वसंस्कार शुभ होते है, भगवान् महापुरुष और शस्त्रोमें जिसकी कुछ श्रद्धा भक्ति होती है  तथा पुर्व पुण्यो के मुझसे और भगवतकृपा से जिसको सत्पुरुष का संग प्राप्त हो जाता है हजारों मनुष्यो मे से ऐसा कोई बिरला ही इस मार्ग में प्रवृत होकर प्रयत्न करता है।</ref> और उन यत्न करने वाले योगियो में भी कोई एक मेंरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है।<ref>रूष ऐसे निकलते है जिनकी श्रद्धा -भक्ति  और साधना पुर्ण होती है ओर उसके फलस्वरूप इसी जन्म में वे भगवान् का साक्षात्कार कर लेते है।</ref> [[पृथ्वी]], [[जल]], अग्नि, [[वायु]], [[आकाश]], मन, [[बुद्धि]] और अहंकार भी- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी [[प्रकृति]] है। यह आठ प्रकार के भेदो वाली तो अपरा<ref>गीता के तेरह वे अध्याय में भगवान् ने जिस अव्यक्त मूल प्रकृति के तेईस कार्य बतलाये है, उसी को यहाँ आठ भेदो में विभक्त बतलाया हैं। यह अपरा प्रकृति ज्ञेय तथा जड होने के कारण ज्ञाता चेतन जीवरूपा परा प्रकृति से सर्वथा भिन्न और निकृष्ट है; यही संसार की हेतुरूप है और इसी के द्वारा जीवन का बन्धन होता है। इसीलिये इसका नाम 'अपरा प्रकृति' है।</ref> अर्थात मेरी जड प्रकति है और हे महाबाद्यो! इससे दूसरी को, जिससे यह समपूर्ण जगत धारण किया जाता है मेरी जीवरूपा अर्थात चेतन प्रकृति जान।<ref>समस्त जीवो के शरीर इन्द्रियां, प्राण तथा भोग्यवस्तुए और भोगसथानमय सम्पूर्ण व्यक्त प्रकृति का नाम जगत है। ऐसा यह जगत रूप जड तत्त्व चेतन तत्त्व से व्याप्त है। अतः उसी ने इसे धारण कर रखा है।</ref><ref name="A"/> हे अर्जुन तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं<ref>अचर और चर जितने भी छोटे-बडे सजीव प्राणी है, उन सभी सजीव प्रणियों की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि इन अपरा जड और परा चेतन प्रकृतियो के संयोग से ही होती हे। इसलिये उनकी उत्पत्ति ये ही दोनो कारण हे। यही बात गीता के तेरह वें अध्याय छब्बीसवें श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के नाम से कही गयी है।</ref> और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ।<ref>जैसे बादल आकाश से उत्पन्न होते हैं। ,आकाश में रहते है और आकाश में ही विलीन को जाते हैं तथा आकाश ही उनका एकमात्र कारण और आधार है, वैसे ही यह सारा विश्र भगवान से ही उत्पन्न हो ता है।, भगवान में ही स्थित है ओर भगवान् में ही विळील हो जाता है। भगवान् ही इसके एकमात्र महान कारण और परम आधार है।</ref> हे धनंजय! मुझसे मित्र दूसरा कोई भी परम कारण नही है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र के मुनियों के सहष मुझ में गुंथा हुआ है।<ref> जैसे सूत की डोरी में उसी सूत की गाठें लगाकर उन्हे मनिये मानकर माला बना लेतें है। और जैसे उस डोरी में और गांठों के मलियों में सर्वत्र के व सूत ही व्यास रहता है, उसी प्रकार यह समस्त संसार भगवान् में गुन्था हुआ हे। भगवान् ही सब में ओतप्रोत है।</ref> हे [[अर्जुन]] मैं जल में रस हूं, [[चन्द्रमा]] और [[सूर्य]] में [[प्रकाश]] हूं, सम्पूर्ण [[वेद|वेदों]] में ओंकार हूं, आकाश में शब्द और पुरुष में पुरुषत्व हूँ। मैं [[पृथ्वी |पृथ्वी]] में पवित्र<ref>शब्द, स्पर्ष रूप, रस एवं गन्ध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप् तन्मात्राओ को ग्रहण है। इस बात को स्पष्ट  करने के लिये उनके साथ पवित्र शब्द जोडा गया है।</ref> गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पुर्ण भूतो में उनका जीवन हूँ और [[तपस्वी |तपस्वियो]] में [[तप]] हूँ। हे अर्जुन। तू सम्पूर्ण भूतो को सनातन बीज मुझको ही जान।<ref>जो सदा से हो तथा कभी नष्ट न हो, उसे [[सनातन]] कहते है। भगवान् ही समस्त चराचर भूत-प्राणियो के परम आधार है। और उन्ही से सबकी उत्पप्ति होती है। अतएव वे ही सबके सनातन बीज है।</ref> मैं बुद्धिमानों की [[बुद्धि]] और तपस्वियो का तेज हूँ।<ref>सम्पूर्ण पदार्थो का मिश्रय करने वाली और मन-इन्द्रियों को अपने शासन में रखकर उनका संचालन करने वाली अन्तः करण की जो परिशुद्ध बोधमयी शक्ति है।, उसे बुद्धि कहते है जिसमें वह बुद्धि अधिक होती है।, उसे बुद्धिमान कहते है यह बुद्धिशक्ति भगवान् की अपरा प्रकृति का ही अंध है। इसी प्रकार सब लोगों पर प्रभाव डालने वाली शक्ति विशेष का नाम तेजस है यह तेजस्तत्त्व जिसमें विशेष होता है।, उसे लोग तेजस्वी कहतें है। यह तेंज भी भगवान की अपरा प्रकृति का ही एक अंश है, इसलिये भगवान ने इन दोनों को अपना स्वरूप बतलाया है।</ref><ref name="B">[[महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 6-13]]</ref>
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हजारो मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है।<ref>भगवत्कृपा के फलसवरूप् मनुष्य -शरीर प्राप्त होने पर भी जनम-जनमान्तर के संस्कारो से भोगों में अतयनत आसक्ति और भगवान् में श्रद्धा-प्रेम को अभाव या कमी रहने के कारण अधिकांश  मनुष्य तो मार्ग की ओर मुंह ही नही करते।  जिसके पूर्वसंस्कार शुभ होते है, भगवान् महापुरुष और शस्त्रोमें जिसकी कुछ श्रद्धा भक्ति होती है  तथा पुर्व पुण्यो के मुझसे और भगवतकृपा से जिसको सत्पुरुष का संग प्राप्त हो जाता है हजारों मनुष्यो मे से ऐसा कोई बिरला ही इस मार्ग में प्रवृत होकर प्रयत्न करता है।</ref> और उन यत्न करने वाले योगियो में भी कोई एक मेंरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है।<ref>रूष ऐसे निकलते है जिनकी श्रद्धा -भक्ति  और साधना पुर्ण होती है ओर उसके फलस्वरूप इसी जन्म में वे भगवान् का साक्षात्कार कर लेते है।</ref> [[पृथ्वी]], [[जल]], अग्नि, [[वायु]], [[आकाश]], मन, [[बुद्धि]] और अहंकार भी- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी [[प्रकृति]] है। यह आठ प्रकार के भेदो वाली तो अपरा<ref>गीता के तेरह वे अध्याय में भगवान् ने जिस अव्यक्त मूल प्रकृति के तेईस कार्य बतलाये है, उसी को यहाँ आठ भेदो में विभक्त बतलाया हैं। यह अपरा प्रकृति ज्ञेय तथा जड होने के कारण ज्ञाता चेतन जीवरूपा परा प्रकृति से सर्वथा भिन्न और निकृष्ट है; यही संसार की हेतुरूप है और इसी के द्वारा जीवन का बन्धन होता है। इसीलिये इसका नाम 'अपरा प्रकृति' है।</ref> अर्थात मेरी जड प्रकति है और हे महाबाद्यो! इससे दूसरी को, जिससे यह समपूर्ण जगत धारण किया जाता है मेरी जीवरूपा अर्थात चेतन प्रकृति जान।<ref>समस्त जीवो के शरीर इन्द्रियां, प्राण तथा भोग्यवस्तुए और भोगसथानमय सम्पूर्ण व्यक्त प्रकृति का नाम जगत है। ऐसा यह जगत रूप जड तत्त्व चेतन तत्त्व से व्याप्त है। अतः उसी ने इसे धारण कर रखा है।</ref><ref name="A"/> हे अर्जुन तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं<ref>अचर और चर जितने भी छोटे-बडे सजीव प्राणी है, उन सभी सजीव प्रणियों की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि इन अपरा जड और परा चेतन प्रकृतियो के संयोग से ही होती हे। इसलिये उनकी उत्पत्ति ये ही दोनो कारण हे। यही बात गीता के तेरह वें अध्याय छब्बीसवें श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के नाम से कही गयी है।</ref> और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ।<ref>जैसे बादल आकाश से उत्पन्न होते हैं। ,आकाश में रहते है और आकाश में ही विलीन को जाते हैं तथा आकाश ही उनका एकमात्र कारण और आधार है, वैसे ही यह सारा विश्र भगवान से ही उत्पन्न हो ता है।, भगवान में ही स्थित है ओर भगवान् में ही विळील हो जाता है। भगवान् ही इसके एकमात्र महान कारण और परम आधार है।</ref> हे धनंजय! मुझसे मित्र दूसरा कोई भी परम कारण नही है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र के मुनियों के सहष मुझ में गुंथा हुआ है।<ref> जैसे सूत की डोरी में उसी सूत की गाठें लगाकर उन्हे मनिये मानकर माला बना लेतें है। और जैसे उस डोरी में और गांठों के मलियों में सर्वत्र के व सूत ही व्यास रहता है, उसी प्रकार यह समस्त संसार भगवान् में गुन्था हुआ हे। भगवान् ही सब में ओतप्रोत है।</ref> हे [[अर्जुन]] मैं जल में रस हूं, [[चन्द्रमा]] और [[सूर्य]] में [[प्रकाश]] हूं, सम्पूर्ण [[वेद|वेदों]] में ओंकार हूं, आकाश में शब्द और पुरुष में पुरुषत्व हूँ। मैं [[पृथ्वी |पृथ्वी]] में पवित्र<ref>शब्द, स्पर्ष रूप, रस एवं गन्ध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप् तन्मात्राओ को ग्रहण है। इस बात को स्पष्ट  करने के लिये उनके साथ पवित्र शब्द जोडा गया है।</ref> गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पुर्ण भूतो में उनका जीवन हूँ और [[तपस्वी |तपस्वियो]] में [[तप]] हूँ। हे अर्जुन। तू सम्पूर्ण भूतो को सनातन बीज मुझको ही जान।<ref>जो सदा से हो तथा कभी नष्ट न हो, उसे [[सनातन]] कहते है। भगवान् ही समस्त चराचर भूत-प्राणियो के परम आधार है। और उन्हीं से सबकी उत्पप्ति होती है। अतएव वे ही सबके सनातन बीज है।</ref> मैं बुद्धिमानों की [[बुद्धि]] और तपस्वियो का तेज हूँ।<ref>सम्पूर्ण पदार्थो का मिश्रय करने वाली और मन-इन्द्रियों को अपने शासन में रखकर उनका संचालन करने वाली अन्तः करण की जो परिशुद्ध बोधमयी शक्ति है।, उसे बुद्धि कहते है जिसमें वह बुद्धि अधिक होती है।, उसे बुद्धिमान कहते है यह बुद्धिशक्ति भगवान् की अपरा प्रकृति का ही अंध है। इसी प्रकार सब लोगों पर प्रभाव डालने वाली शक्ति विशेष का नाम तेजस है यह तेजस्तत्त्व जिसमें विशेष होता है।, उसे लोग तेजस्वी कहतें है। यह तेंज भी भगवान की अपरा प्रकृति का ही एक अंश है, इसलिये भगवान ने इन दोनों को अपना स्वरूप बतलाया है।</ref><ref name="B">[[महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 6-13]]</ref>
  
हे भरतश्रेष्ठ। मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओ से रहित बल अर्थात सामर्थ हूँ और सब भूतों में [[धर्म]] के अनुकूल अर्थात [[शास्त्र]] के अनूकूल काम हूँ।<ref>जिस बल में कामना, राग, अंहकार तथा क्रोधादि का संयोग है, उस बल को वर्णन आसुरी सम्पदा में किया गया है। गीता, अतः वह तो आसुर बल है और उसके त्यागने की बात कही है इसी प्रकार धर्म-विरुद्ध काम भी आसुरी सम्पदा का प्रधान गुण होने से समस्त अनर्थो का मूल, नरक का द्वार और त्याज्य है। काम-रागयुक्त बल से और धर्मविरुद्ध काम से विलक्षण, विरुद्ध ,बल और विशुंद्ध काम ही भगवान् का स्वरूप है।</ref> सम्बन्ध-इस प्रकार प्रधान-प्रधान वस्तुओ में साररूप से अपनी व्यापकता बतलाते हुए भगवान् ने प्रकारान्तर से समस्त जगत में अपनी सर्वव्यापकता और सर्वस्वरूपता सिद्ध कर दी, अब अपने-को ही त्रिगुणमय जगत का मूल कारण बतलाकर इस प्रसंग का उपंसहार करते हैं। और भी जो सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव है और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव है, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं'<ref>मन, बुद्धि, अंहकार, इनिद्रय, इन्द्रियों के विषय, तनमात्रां, महाभूत और समस्त गुण-अवगुण तथा कर्म आदि जितने भी भाव है, सभी साक्तविक, राजस और तामस भावो के अन्तर्गत है। इन समस्त पदार्थो का विकास ओर विस्तार भगवान् की अपरा प्रकृति से होता है और वह प्रकृति भगवान् की है, अतः भगवान् से भिन्न नही है, उन्ही के ललीला-संकेत से प्रकृति द्वारा सगका सृजन, विस्तार और उपसंहार होता रहता है-इस प्रकार जान लेना ही उन सबको भगवान् से होने वाले समझना है।</ref> ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।<ref>जैसे आकाश में उत्पन्न होने वाले बादलों कारण और आधार आकाश है, परंतु आकाश उनसे सर्वथा निर्लिप्त है। बादल आकाश में सदा नही रहते और अनित्य होने से वस्तुतः उनकी स्थिर सत्ता भी नही है; पर आकाश बादलो के न रहने पर भी सदा रहता है। जहाँ बादल नही है, वहाँ भी आकाश तो है ही; वह बादलो के अश्रित नही है। वस्तुतः बादल भी आकाश से भिन्न नही है, उसी में उससे उत्पन्न होते हैं। अतएव यथार्थ में बादलो की भिन्न सत्ता न होने से आकाश किसी समय भी बादलो मे नही है।, वह तो सदा अपने आप में ही स्थित है। इसी प्रकार यद्यपि भगवान् भी समस्त त्रिगुणमय भावो के कारण और आधार है, तथापि वास्तव में वे गुण भगवान् में नही है और भगवान् उनमें नही है। भगवान् तो सर्वथा ओर सर्वदा गुणातीत है तथा नित्य अपने-आप में ही स्थित है।</ref>
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हे भरतश्रेष्ठ। मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओ से रहित बल अर्थात सामर्थ हूँ और सब भूतों में [[धर्म]] के अनुकूल अर्थात [[शास्त्र]] के अनूकूल काम हूँ।<ref>जिस बल में कामना, राग, अंहकार तथा क्रोधादि का संयोग है, उस बल को वर्णन आसुरी सम्पदा में किया गया है। गीता, अतः वह तो आसुर बल है और उसके त्यागने की बात कही है इसी प्रकार धर्म-विरुद्ध काम भी आसुरी सम्पदा का प्रधान गुण होने से समस्त अनर्थो का मूल, नरक का द्वार और त्याज्य है। काम-रागयुक्त बल से और धर्मविरुद्ध काम से विलक्षण, विरुद्ध ,बल और विशुंद्ध काम ही भगवान् का स्वरूप है।</ref> सम्बन्ध-इस प्रकार प्रधान-प्रधान वस्तुओ में साररूप से अपनी व्यापकता बतलाते हुए भगवान् ने प्रकारान्तर से समस्त जगत में अपनी सर्वव्यापकता और सर्वस्वरूपता सिद्ध कर दी, अब अपने-को ही त्रिगुणमय जगत का मूल कारण बतलाकर इस प्रसंग का उपंसहार करते हैं। और भी जो सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव है और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव है, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं'<ref>मन, बुद्धि, अंहकार, इनिद्रय, इन्द्रियों के विषय, तनमात्रां, महाभूत और समस्त गुण-अवगुण तथा कर्म आदि जितने भी भाव है, सभी साक्तविक, राजस और तामस भावो के अन्तर्गत है। इन समस्त पदार्थो का विकास ओर विस्तार भगवान् की अपरा प्रकृति से होता है और वह प्रकृति भगवान् की है, अतः भगवान् से भिन्न नही है, उन्हीं के ललीला-संकेत से प्रकृति द्वारा सगका सृजन, विस्तार और उपसंहार होता रहता है-इस प्रकार जान लेना ही उन सबको भगवान् से होने वाले समझना है।</ref> ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।<ref>जैसे आकाश में उत्पन्न होने वाले बादलों कारण और आधार आकाश है, परंतु आकाश उनसे सर्वथा निर्लिप्त है। बादल आकाश में सदा नही रहते और अनित्य होने से वस्तुतः उनकी स्थिर सत्ता भी नही है; पर आकाश बादलो के न रहने पर भी सदा रहता है। जहाँ बादल नही है, वहाँ भी आकाश तो है ही; वह बादलो के अश्रित नही है। वस्तुतः बादल भी आकाश से भिन्न नही है, उसी में उससे उत्पन्न होते हैं। अतएव यथार्थ में बादलो की भिन्न सत्ता न होने से आकाश किसी समय भी बादलो मे नही है।, वह तो सदा अपने आप में ही स्थित है। इसी प्रकार यद्यपि भगवान् भी समस्त त्रिगुणमय भावो के कारण और आधार है, तथापि वास्तव में वे गुण भगवान् में नही है और भगवान् उनमें नही है। भगवान् तो सर्वथा ओर सर्वदा गुणातीत है तथा नित्य अपने-आप में ही स्थित है।</ref>
 
   
 
   
 
सम्बन्ध-भगवान् ने यह दिखलाया कि समस्त जगत मेरा ही स्वरूप है और मुझसे ही व्याप्त है। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि इस प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण और अत्यन्त समीप होने पर भी लोग भगवान को क्यों नही पहचानते इस पर भगवान कहतें हैं -गुणो के कार्यरूप साक्तविक, राजस और तामस-इन तीनो प्रकार के भावो से यह संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है।, इसीलिये इन तीनो गुणो से परे मुझ अविनाशी को नही जानता<ref>जगत के समस्त देहाभिमानी प्राणी-यहॅा तक कि मनुष्य भी- अपने-अपने स्वभाव, प्रकृति और विचार के अनुसार, अनित्य और दुःखपूर्ण इन त्रिगुणमय भावो की नित्य और सुख के हेतु समझकर इनकी कल्पित रमणीयमा और सुख-रूपताकी केवल उपर से ही दीखनेवाली चमर-दमर में जीवन के परम कारण उनकी विवेकद्यष्टि इतनी स्थूल हो गयी है कि वे विषयो के संग्रह करने और भोगने के सिवा जीवन का अन्य कोई कर्तव्य या लक्ष्य ही नही समझते। इसलिये वे इन सबसे सर्वथा अतीत, अविनाशी परमात्मा को नही जान सकते।</ref><ref name="B"/> क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्धुत त्रिगुणमयी मेरी माया बडी दुस्तर है परंतु जो मनुष्य  केवल मुझको ही निरन्तर भेजते है, वे इस [[माया]] को उल्लघन कर जाते है अर्थात् संसार से तर जाते हैं।<ref>जो एकमात्र भगवान को ही अपना परम आश्रय, परम गति , परम प्रिय और परम प्राप्य मानते है तथा सब कुछ भगवान् का या भगवान् के ही लिये है-ऐसा समझकर जो शरीर, स्त्री, पुत्र, घन, गृह, कीर्ति आदि में ममत्व और आसक्तिका तयाग करके , उन सब को भगवान् की ही पूजा की सामग्री बनाकर तथा भगवान् के रचे हुए विघान में सदा संतुष्ट रहकर, भगवान की आज्ञा के पालन में तत्पर और भगवान् के स्मरणपरायण होकर अपने को सब प्रकार से निरनतर भगवान् में ही लगाये रखते है, वे शरणागत भक्त मायासे तरते है।</ref>
 
सम्बन्ध-भगवान् ने यह दिखलाया कि समस्त जगत मेरा ही स्वरूप है और मुझसे ही व्याप्त है। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि इस प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण और अत्यन्त समीप होने पर भी लोग भगवान को क्यों नही पहचानते इस पर भगवान कहतें हैं -गुणो के कार्यरूप साक्तविक, राजस और तामस-इन तीनो प्रकार के भावो से यह संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है।, इसीलिये इन तीनो गुणो से परे मुझ अविनाशी को नही जानता<ref>जगत के समस्त देहाभिमानी प्राणी-यहॅा तक कि मनुष्य भी- अपने-अपने स्वभाव, प्रकृति और विचार के अनुसार, अनित्य और दुःखपूर्ण इन त्रिगुणमय भावो की नित्य और सुख के हेतु समझकर इनकी कल्पित रमणीयमा और सुख-रूपताकी केवल उपर से ही दीखनेवाली चमर-दमर में जीवन के परम कारण उनकी विवेकद्यष्टि इतनी स्थूल हो गयी है कि वे विषयो के संग्रह करने और भोगने के सिवा जीवन का अन्य कोई कर्तव्य या लक्ष्य ही नही समझते। इसलिये वे इन सबसे सर्वथा अतीत, अविनाशी परमात्मा को नही जान सकते।</ref><ref name="B"/> क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्धुत त्रिगुणमयी मेरी माया बडी दुस्तर है परंतु जो मनुष्य  केवल मुझको ही निरन्तर भेजते है, वे इस [[माया]] को उल्लघन कर जाते है अर्थात् संसार से तर जाते हैं।<ref>जो एकमात्र भगवान को ही अपना परम आश्रय, परम गति , परम प्रिय और परम प्राप्य मानते है तथा सब कुछ भगवान् का या भगवान् के ही लिये है-ऐसा समझकर जो शरीर, स्त्री, पुत्र, घन, गृह, कीर्ति आदि में ममत्व और आसक्तिका तयाग करके , उन सब को भगवान् की ही पूजा की सामग्री बनाकर तथा भगवान् के रचे हुए विघान में सदा संतुष्ट रहकर, भगवान की आज्ञा के पालन में तत्पर और भगवान् के स्मरणपरायण होकर अपने को सब प्रकार से निरनतर भगवान् में ही लगाये रखते है, वे शरणागत भक्त मायासे तरते है।</ref>

01:02, 28 अप्रॅल 2018 के समय का अवतरण

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 31वें अध्याय में 'ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन' दिया हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]


संबंध-छठे अध्‍याय के अंतिम श्र्लोक में भगवान् ने कहा कि-‘अंतरात्‍मा को मुझमें लगाकर जो श्रद्धा और प्रेम के साथ मुझ को भजता है, वह सब प्रकार के योगीयों में उत्तम योगी है।’ परंतु भगवान् के स्‍वरूप, गुण ओर प्रभाव को मनुष्‍य जब तक हीं जान पाता, तब तक उसके द्वारा अंतरात्‍मा से निरंतर भजन होना बहुत कठिन है साथ ही भजन का प्रकार जानना भी आवश्‍यक है। इसलिये अब भगवान् अपने गुण, प्रभाव के सहित समग्र स्‍वरूप का तथा अनेक प्रकारों से युक्‍त भक्तियों का वर्णन करने के लिये सातवें अध्‍याय का आरम्‍भ करते हैं और सबसे पहले दो श्र्लोकों में अर्जुन को उसे सावधानी के साथ सुनने के लिये प्रेरणा करके ज्ञान-विज्ञान के कहने की प्रतिज्ञा करते हैं-

कृष्ण का अर्जुन से ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन करना

श्रीभगवान बोले- हे पार्थ! अनन्‍य प्रेम से मुझ में आसक्तिचित्त तथा अनन्‍य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ[2] तू जिस प्रकार से सम्‍पूर्ण विभूति, बल, ऐश्र्वर्यादि गुणों से युक्‍त, सबके आत्‍मरूप से मुझको संशयरहित जानेगा,[3] उसको सुना।[4] मै तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्त्व ज्ञान को[5] सम्पूर्णतया कहूंगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नही रह जाता।[6]

हजारो मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है।[7] और उन यत्न करने वाले योगियो में भी कोई एक मेंरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है।[8] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदो वाली तो अपरा[9] अर्थात मेरी जड प्रकति है और हे महाबाद्यो! इससे दूसरी को, जिससे यह समपूर्ण जगत धारण किया जाता है मेरी जीवरूपा अर्थात चेतन प्रकृति जान।[10][1] हे अर्जुन तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं[11] और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ।[12] हे धनंजय! मुझसे मित्र दूसरा कोई भी परम कारण नही है। यह सम्पूर्ण जगत सूत्र के मुनियों के सहष मुझ में गुंथा हुआ है।[13] हे अर्जुन मैं जल में रस हूं, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूं, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूं, आकाश में शब्द और पुरुष में पुरुषत्व हूँ। मैं पृथ्वी में पवित्र[14] गंध और अग्नि में तेज हूँ तथा सम्पुर्ण भूतो में उनका जीवन हूँ और तपस्वियो में तप हूँ। हे अर्जुन। तू सम्पूर्ण भूतो को सनातन बीज मुझको ही जान।[15] मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तपस्वियो का तेज हूँ।[16][17]

हे भरतश्रेष्ठ। मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओ से रहित बल अर्थात सामर्थ हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनूकूल काम हूँ।[18] सम्बन्ध-इस प्रकार प्रधान-प्रधान वस्तुओ में साररूप से अपनी व्यापकता बतलाते हुए भगवान् ने प्रकारान्तर से समस्त जगत में अपनी सर्वव्यापकता और सर्वस्वरूपता सिद्ध कर दी, अब अपने-को ही त्रिगुणमय जगत का मूल कारण बतलाकर इस प्रसंग का उपंसहार करते हैं। और भी जो सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले भाव है और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव है, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं'[19] ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।[20]

सम्बन्ध-भगवान् ने यह दिखलाया कि समस्त जगत मेरा ही स्वरूप है और मुझसे ही व्याप्त है। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि इस प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण और अत्यन्त समीप होने पर भी लोग भगवान को क्यों नही पहचानते इस पर भगवान कहतें हैं -गुणो के कार्यरूप साक्तविक, राजस और तामस-इन तीनो प्रकार के भावो से यह संसार- प्राणिसमुदाय मोहित हो रहा है।, इसीलिये इन तीनो गुणो से परे मुझ अविनाशी को नही जानता[21][17] क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्धुत त्रिगुणमयी मेरी माया बडी दुस्तर है परंतु जो मनुष्य केवल मुझको ही निरन्तर भेजते है, वे इस माया को उल्लघन कर जाते है अर्थात् संसार से तर जाते हैं।[22]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-5
  2. मन और बुद्धि को अचलभाव से भगवान् में स्थिर करके नित्‍य-निरंतर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनका चिंतन करना ही योग में लग जाना है।
  3. भगवान् नित्‍य है, सत्‍य हैं, सनातन हैं; वे सर्वगुणसम्‍पन्‍न, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वव्‍यापी, सर्वाधार और सर्वरूप है तथा स्वंय ही अपनीयोग माया से जगत के रूप में प्रकट होते हैं वस्तुतः उनके अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नही , वयक्त, अव्यक्त और सगुण निर्गुण सब वे ही है। इस प्रकार उन भगवान् के स्वरूप को निरभ्रानता और असंदिगधरूप से समझ लेना ही समग्र भगवान को संषयरहित जानना है।
  4. इस लोक और परलोक के किसी भी भोग के प्रति जिसके मन में तनिक भी आसक्ति नहीं रह गयी है तथा जिसका मन सब ओर से हटकर एकमात्र परम प्रेमास्‍पद, सर्वगुणसम्‍पन्‍न परमेश्र्वर में इतना अधिक आसक्‍त हो गया है कि जल के जरासे वियोग में परम व्‍याकुल हो जाने वाली मछली के समान जो क्षणभर भी भगवान् के वियोग और विस्‍मरण को सहन नहीं कर सकता,वह ‘मय्‍यासक्‍तमना:’ है। जो पुरुष संसार के सम्‍पूर्ण आश्रयों का त्‍याग करके समस्‍त आशाओं और भरोसों से मुंह मोड़कर एकमात्र भगवान् पर ही निर्भर करता है और सर्वशक्तिमान् भगवान् को ही परम आश्रय तथा परम गति जानकर एकमात्र उन्‍हीं के भरोसेपर सदा के लिये निश्चिंत हो गया है, वह ‘मदाश्रय:’ है।
  5. भगवान् के निर्गुण निराकार तत्त्व को जो प्रभाव, माहात्म्य और रहस्यसहित यथार्थ ज्ञान है, उसे ज्ञान कहते है इसी प्रकार उनके सगुण निराकार और दिव्य साकार तत्त्व के लीला, रहस्य, गुण, महत्त्व और प्रभाव सहित यथार्थ ज्ञानका नाम विज्ञान है।
  6. ज्ञान और विज्ञान के द्वारा भगवान् के समग्र स्वरूप की भलीभाँति उपलब्धि हो जाती है। यह विश्र-ब्रहाण्ड तो समग्र रूप का एक क्षुद्र-सा अंशमात्र है। जब मनुष्य भगवान् के समग्र रूप को जान लेता है, तब सवभावतः ही उसके लिये कुछ भी जानना बाकी नही रह जाता।
  7. भगवत्कृपा के फलसवरूप् मनुष्य -शरीर प्राप्त होने पर भी जनम-जनमान्तर के संस्कारो से भोगों में अतयनत आसक्ति और भगवान् में श्रद्धा-प्रेम को अभाव या कमी रहने के कारण अधिकांश मनुष्य तो मार्ग की ओर मुंह ही नही करते। जिसके पूर्वसंस्कार शुभ होते है, भगवान् महापुरुष और शस्त्रोमें जिसकी कुछ श्रद्धा भक्ति होती है तथा पुर्व पुण्यो के मुझसे और भगवतकृपा से जिसको सत्पुरुष का संग प्राप्त हो जाता है हजारों मनुष्यो मे से ऐसा कोई बिरला ही इस मार्ग में प्रवृत होकर प्रयत्न करता है।
  8. रूष ऐसे निकलते है जिनकी श्रद्धा -भक्ति और साधना पुर्ण होती है ओर उसके फलस्वरूप इसी जन्म में वे भगवान् का साक्षात्कार कर लेते है।
  9. गीता के तेरह वे अध्याय में भगवान् ने जिस अव्यक्त मूल प्रकृति के तेईस कार्य बतलाये है, उसी को यहाँ आठ भेदो में विभक्त बतलाया हैं। यह अपरा प्रकृति ज्ञेय तथा जड होने के कारण ज्ञाता चेतन जीवरूपा परा प्रकृति से सर्वथा भिन्न और निकृष्ट है; यही संसार की हेतुरूप है और इसी के द्वारा जीवन का बन्धन होता है। इसीलिये इसका नाम 'अपरा प्रकृति' है।
  10. समस्त जीवो के शरीर इन्द्रियां, प्राण तथा भोग्यवस्तुए और भोगसथानमय सम्पूर्ण व्यक्त प्रकृति का नाम जगत है। ऐसा यह जगत रूप जड तत्त्व चेतन तत्त्व से व्याप्त है। अतः उसी ने इसे धारण कर रखा है।
  11. अचर और चर जितने भी छोटे-बडे सजीव प्राणी है, उन सभी सजीव प्रणियों की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि इन अपरा जड और परा चेतन प्रकृतियो के संयोग से ही होती हे। इसलिये उनकी उत्पत्ति ये ही दोनो कारण हे। यही बात गीता के तेरह वें अध्याय छब्बीसवें श्लोक में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के नाम से कही गयी है।
  12. जैसे बादल आकाश से उत्पन्न होते हैं। ,आकाश में रहते है और आकाश में ही विलीन को जाते हैं तथा आकाश ही उनका एकमात्र कारण और आधार है, वैसे ही यह सारा विश्र भगवान से ही उत्पन्न हो ता है।, भगवान में ही स्थित है ओर भगवान् में ही विळील हो जाता है। भगवान् ही इसके एकमात्र महान कारण और परम आधार है।
  13. जैसे सूत की डोरी में उसी सूत की गाठें लगाकर उन्हे मनिये मानकर माला बना लेतें है। और जैसे उस डोरी में और गांठों के मलियों में सर्वत्र के व सूत ही व्यास रहता है, उसी प्रकार यह समस्त संसार भगवान् में गुन्था हुआ हे। भगवान् ही सब में ओतप्रोत है।
  14. शब्द, स्पर्ष रूप, रस एवं गन्ध से इस प्रसंग में इनके कारण रूप् तन्मात्राओ को ग्रहण है। इस बात को स्पष्ट करने के लिये उनके साथ पवित्र शब्द जोडा गया है।
  15. जो सदा से हो तथा कभी नष्ट न हो, उसे सनातन कहते है। भगवान् ही समस्त चराचर भूत-प्राणियो के परम आधार है। और उन्हीं से सबकी उत्पप्ति होती है। अतएव वे ही सबके सनातन बीज है।
  16. सम्पूर्ण पदार्थो का मिश्रय करने वाली और मन-इन्द्रियों को अपने शासन में रखकर उनका संचालन करने वाली अन्तः करण की जो परिशुद्ध बोधमयी शक्ति है।, उसे बुद्धि कहते है जिसमें वह बुद्धि अधिक होती है।, उसे बुद्धिमान कहते है यह बुद्धिशक्ति भगवान् की अपरा प्रकृति का ही अंध है। इसी प्रकार सब लोगों पर प्रभाव डालने वाली शक्ति विशेष का नाम तेजस है यह तेजस्तत्त्व जिसमें विशेष होता है।, उसे लोग तेजस्वी कहतें है। यह तेंज भी भगवान की अपरा प्रकृति का ही एक अंश है, इसलिये भगवान ने इन दोनों को अपना स्वरूप बतलाया है।
  17. 17.0 17.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 6-13
  18. जिस बल में कामना, राग, अंहकार तथा क्रोधादि का संयोग है, उस बल को वर्णन आसुरी सम्पदा में किया गया है। गीता, अतः वह तो आसुर बल है और उसके त्यागने की बात कही है इसी प्रकार धर्म-विरुद्ध काम भी आसुरी सम्पदा का प्रधान गुण होने से समस्त अनर्थो का मूल, नरक का द्वार और त्याज्य है। काम-रागयुक्त बल से और धर्मविरुद्ध काम से विलक्षण, विरुद्ध ,बल और विशुंद्ध काम ही भगवान् का स्वरूप है।
  19. मन, बुद्धि, अंहकार, इनिद्रय, इन्द्रियों के विषय, तनमात्रां, महाभूत और समस्त गुण-अवगुण तथा कर्म आदि जितने भी भाव है, सभी साक्तविक, राजस और तामस भावो के अन्तर्गत है। इन समस्त पदार्थो का विकास ओर विस्तार भगवान् की अपरा प्रकृति से होता है और वह प्रकृति भगवान् की है, अतः भगवान् से भिन्न नही है, उन्हीं के ललीला-संकेत से प्रकृति द्वारा सगका सृजन, विस्तार और उपसंहार होता रहता है-इस प्रकार जान लेना ही उन सबको भगवान् से होने वाले समझना है।
  20. जैसे आकाश में उत्पन्न होने वाले बादलों कारण और आधार आकाश है, परंतु आकाश उनसे सर्वथा निर्लिप्त है। बादल आकाश में सदा नही रहते और अनित्य होने से वस्तुतः उनकी स्थिर सत्ता भी नही है; पर आकाश बादलो के न रहने पर भी सदा रहता है। जहाँ बादल नही है, वहाँ भी आकाश तो है ही; वह बादलो के अश्रित नही है। वस्तुतः बादल भी आकाश से भिन्न नही है, उसी में उससे उत्पन्न होते हैं। अतएव यथार्थ में बादलो की भिन्न सत्ता न होने से आकाश किसी समय भी बादलो मे नही है।, वह तो सदा अपने आप में ही स्थित है। इसी प्रकार यद्यपि भगवान् भी समस्त त्रिगुणमय भावो के कारण और आधार है, तथापि वास्तव में वे गुण भगवान् में नही है और भगवान् उनमें नही है। भगवान् तो सर्वथा ओर सर्वदा गुणातीत है तथा नित्य अपने-आप में ही स्थित है।
  21. जगत के समस्त देहाभिमानी प्राणी-यहॅा तक कि मनुष्य भी- अपने-अपने स्वभाव, प्रकृति और विचार के अनुसार, अनित्य और दुःखपूर्ण इन त्रिगुणमय भावो की नित्य और सुख के हेतु समझकर इनकी कल्पित रमणीयमा और सुख-रूपताकी केवल उपर से ही दीखनेवाली चमर-दमर में जीवन के परम कारण उनकी विवेकद्यष्टि इतनी स्थूल हो गयी है कि वे विषयो के संग्रह करने और भोगने के सिवा जीवन का अन्य कोई कर्तव्य या लक्ष्य ही नही समझते। इसलिये वे इन सबसे सर्वथा अतीत, अविनाशी परमात्मा को नही जान सकते।
  22. जो एकमात्र भगवान को ही अपना परम आश्रय, परम गति , परम प्रिय और परम प्राप्य मानते है तथा सब कुछ भगवान् का या भगवान् के ही लिये है-ऐसा समझकर जो शरीर, स्त्री, पुत्र, घन, गृह, कीर्ति आदि में ममत्व और आसक्तिका तयाग करके , उन सब को भगवान् की ही पूजा की सामग्री बनाकर तथा भगवान् के रचे हुए विघान में सदा संतुष्ट रहकर, भगवान की आज्ञा के पालन में तत्पर और भगवान् के स्मरणपरायण होकर अपने को सब प्रकार से निरनतर भगवान् में ही लगाये रखते है, वे शरणागत भक्त मायासे तरते है।

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भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं 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आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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