महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
22.शकुनि का प्रवेश
युधिष्ठिर की बातें उनके भाइयों को भी ठीक लगीं। वे भी इसी निश्चय पर पहुँचे कि झगड़े–फसाद का हमें कारण नहीं बनना चाहिए। इस मनो-भूमिका में जब चौपड़ के खेल के लिए धृतराष्ट्र ने बुलावा भेजा था तो युधिष्ठिर ने उसे मान लिया था। युधिष्ठिर ने तो यह शपथ इसलिए ली थी कि झगड़ा होने की संभावना ही दूर हो जाये। पर उनकी वही प्रतिज्ञा आखिर झगड़े का कारण बन गई। बुलावा न मानने से कहीं झगड़ा न हो जाये, इस भय से युधिष्ठिर चौपड़ खेले, किन्तु उसी पांसे के खेल के कारण आपसी मनमुटाव की आग लग गई जो अन्त में भयंकर युद्ध के रूप में परिणत हो गई, जिसने सारे क्षत्रिय कुल को भस्मसात कर डाला। युधिष्ठिर की यह प्रतिज्ञा इस बात का सुप्रसिद्ध उदाहरण है कि मनुष्य के मनसूबे, उसके उपाय तथा प्रयत्न होनी के आगे किसी काम के नहीं होते। होनी हो कर रहती है और मनुष्य के प्रयत्नों का उल्टा ही नतीजा निकलता है। उधर युधिष्ठिर चिन्तित हो रहे थे कि कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा न हो और इधर राजसूय यज्ञ का ठाट-बाट तथा पांडवों की यश-समृद्धि का स्मरण ही दुर्योधन के मन को खाये जा रहा था। वह ईर्ष्या की जलन से बेचैन हो रहा था। युधिष्ठिर के सभा-मण्डप की कुशल कारीगरी ऐसी थी कि दुर्योधन देखकर मुग्ध हो गया। किवाड़ स्फटिक के बने हुए थे, इसलिए दुर्योधन को उनके न होने का भ्रम हो जाता था। राजसूय यज्ञ के समय देश-विदेश के राजा-महाराजाओं ने मण्डप में वह ऐश्वर्य ला उपस्थित किया, जो दुर्योधन ने कभी देखा न था। दुर्योधन ने यह भी देखा कि कितने ही देशों के राजा पांडवों के परम मित्र बने हैं। इस सबके स्मरण-मात्र से उसका दु:ख और भी असह्य हो उठा। लंबी सांसें लेकर वह रह जाता। पांडवों के सौभाग्य की याद करके उसकी जलन बढ़ने लगती। अपने महल के कोने में इसी भाँति चिन्तित और उदास वह एक रोज खड़ा था कि उसे यह भी पता न लगा कि उसके बगल में उसका मामा शकुनि आ खड़ा हुआ है। "बेटा! यों चिन्तित और उदास क्यों खड़े हो? कौन-सा दु:ख तुम को सता रहा है?" शकुनि ने पूछा। दुर्योधन लम्बी सांस लेते हुए बोला- "मामा, चारों भाइयों समेत युधिष्ठिर देवराज इन्द्र के समान ठाट-बाट से राज कर रहा है। इतने राजाओं के बीच शिशुपाल की हत्या हुई, फिर भी इकट्ठे राजाओं में किसी की हिम्मत न पड़ी कि उसका विरोध करे। भय के कारण कांपते हुए सब-के-सब बैठे देखते रहे। क्षत्रिय राजाओं ने अपार धन और संपत्ति युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाकर भेंट की। यह सब इन आंखों से देखने पर भी मैं कैसे शोक न करूं? मेरा तो अब जीना ही व्यर्थ मालूम होता है!" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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