महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
81.पुत्र-शोक
पुत्र के विछोह से दुखित अर्जुन को वासुदेव ने संभाला और उसे तरह-तरह से समझाने लगे- "भैया, तुम्हें इस तरह व्यथित नहीं होना चाहिए। हम क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय हथियारों के बल जीते हैं और हथियारों से ही हमारी मृत्यु होती है। जो कायर नहीं हैं, जो युद्ध के मैदान में पीठ दिखाना नहीं जानते, उन शूरों की तो मृत्यु सहेली बनकर सदा साथ रहती है। जो वीर निडर होते हैं उनकी तो असमय में अचानक मृत्यु हो जाना ही स्वाभाविक मृत्यु है। पुण्यवानों के योग्य स्वर्ग को तुम्हारा पुत्र प्राप्त हुआ है। क्षत्रिय की यही तो कामना होती है कि युद्ध करते हुए वीरोचित रीति से प्राण त्याग करे। क्षत्रियों के जीवन का जो चरम ध्येय है- जिसे पाना ही क्षत्रियों के जीवन का चरम उद्देश्य माना गया है-उसी को आज अभिमन्यु प्राप्त हुआ। अत: तुम्हें पुत्र की मृत्यु का दु:ख न करना चाहिए। तुम अधिक शोक-विह्वल होओगे तो तुम्हारे बंधु-बांधवों एवं साथियों का भी मन अधीर हो उठेगा। उनकी भी स्थिरता जाती रहेगी। अत: शोक को दूर करो। अपने को संभालो और दूसरों को भी ढाढस बंधाओ।" श्रीकृष्ण की बातें सुनकर अर्जुन कुछ शांत हुआ। उसने अपने इस वीर पुत्र की मृत्यु का सारा हाल जानना चाहा। उसके पूछने पर युधिष्ठिर बोले- "मैंने अभिमन्यु से कहा था कि चक्रव्यूह को तोड़कर भीतर प्रवेश करने का हमारे लिये रास्ता बना दो तो हम सब तुम्हारा अनुकरण करते हुए व्यूह में प्रवेश कर लेंगे। तुम्हारे सिवा दूसरा और कोई इस व्यूह को तोड़ना नहीं जानता। तुम्हारे पिता और मामा को भी यही प्रिय होगा। तुम इस काम को अवश्य करना। मेरी बात मानकर वीर अभिमन्यु उस अभेद्य व्यूह को तोड़कर अंदर घुस गया। हम भी उसी के पीछे-पीछे चले और हम अंदर घुसने ही वाले थे कि पापी जयद्रथ ने हमें रोक लिया। उसने बड़ी चतुरता से टूटे हुए व्यूह को फिर ठीक कर दिया। हमारे लाख प्रयत्न करने पर भी जयद्रथ ने हमें प्रवेश करने नहीं दिया। इसके बाद हम तो बाहर रहे और अंदर कई महारथियों ने एक साथ मिलकर उस अकेले बालक को घेर लिया और मार डाला।" युधिष्ठिर की बात पूरी न हो पाई थी कि अर्जुन आर्त्त स्वर में "हा बेटा!" कहकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। चेत आने पर वह उठा और दृढ़तापूर्वक बोला- "जिसके कारण मेरे प्रिय पुत्र की मृत्यु हुई, उस जयद्रथ का मैं कल सूर्यास्त होने से पहले वध करके रहूंगा। युद्ध-क्षेत्र में जयद्रथ की रक्षा करने को यदि आचार्य द्रोण और कृप भी आ जायें तो उनको भी मैं अपने बाणों की भेंट चढ़ा दूंगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।" यह कहकर अर्जुन ने गांडीव धनुष को जोर से टंकार किया। श्रीकृष्ण ने भी पांचजन्य शंख बजाया और भीमसेन बोल उठा- "गांडीव की यह टंकार और मधुसूदन के शंख की यह ध्वनि धृतराष्ट्र के पुत्रों के सर्वनाश की सूचना है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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