महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
73.भीष्म का अंत
भीष्म गिरे तो, लेकिन उनका शरीर भूमि से न लगा। सारे शरीर में जो बाण लगे थे वे एक तरफ से घुसकर दूसरी तरफ निकल आए थे। भीष्म का शरीर जमीन पर न पड़कर उन तीरों के सहारे ही ऊपर उठा रहा। उस विलक्षण शर-शैय्या पर पड़े भीष्म के शरीर से एक अनूठी आभा फूट रही थी। वह पहले से भी अधिक ज्वलंत दिखाई दे रहे थे। भीष्म के गिरते ही दोनों पक्ष के वीरों ने युद्ध बंद कर दिया और भीष्म के दर्शनार्थ झुंड-के-झुंड दौड़ पड़े। भरत देश के सभी राजा भीष्म के आगे सिर झुकाये, हाथ जोड़े, उसी प्रकार खड़े रहे, जैसे सारे देवता सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को नमस्कार करने खड़े हों। "मेरा सिर नीचे लटक रहा है। मेरे सिर को ऊपर उठाये रखने के लिये सिर के नीचे कुछ सहारा तो कोई लगा दो।" अपने चारों ओर खड़े राजाओं से भीष्म ने कहा। पास में खड़े राजा लोग शिविरों में दौड़े और कई सुन्दर और मुलायम तकिये ले आए। रेशम और रुई के उन कोमल तकियों को पितामह ने लेने से इनकार कर दिया। अर्जुन से बोले– " बेटा अर्जुन, मेरे सिर के नीचे कोई सहारा नहीं है। वह लटक रहा है। कोई ठीक-सा सहारा तो लगा दो।" भीष्म ने यह वचन उसी अर्जुन से कहे जिसने अभी-अभी प्राणहारी बाणों से उनको बींध डाला था। भीष्म का आदेश सुनते ही अर्जुन ने अपने तरकश से तीन तेज बाण निकाले और पितामह का सिर उनकी नोंक पर रखकर उनके लिये उपयुक्त तकिया बना दिया। इसके बाद पितामह ने अर्जुन से कहा– " बेटा! मेरा सारा शरीर जल रहा है और प्यास लग रही है। थोड़ा पानी तो पिलाओ।" अर्जुन ने तुरन्त धनुष तानकर भीष्म की दाहिनी बगल में पृथ्वी पर बड़े जोर से एक तीर मारा। बाण पृथ्वी में घुसकर सीधा पाताल में जा लगा। उसी क्षण उस स्थल से जल का एक स्त्रोत फूट निकला। कवि कहते हैं कि इस प्रकार माता गंगा अपने महान और प्यारे पुत्र की प्यास बुझाने स्वयं आई और भीष्म ने अमृत के समान मधुर और शीतल जल पीकर अपनी प्यास बुझाई। वह बहुत ही खुश और प्रसन्न दिखाई दिये। फिर दुर्योधन से बोले– "बेटा दुर्योधन! तुम्हें अच्छी बुद्धि प्राप्त हो! देखा तुमने, अर्जुन ने मेरी प्यास कैसे बुझाई? कैसे जल निकला? यह बात संसार में और किसी से हो सकती है? अब भी समय है विलम्ब न करो। अर्जुन से संधि कर लो। मेरी कामना है कि मेरे साथ ही इस युद्ध का भी अवसान हो जाये। बेटा! तुम मेरी बात पर ध्यान देकर पांडवों से अवश्य संधि कर लो।" मृत्यु को सामने देखने पर भी जैसे रोगी को दवा नहीं सुहाती, कड़वी ही लगती है, वैसे ही दुर्योधन को पितामह की ये बातें बहुत ही कड़वी लगीं पर वह कुछ बोला नहीं। धीरे-धीरे सभी राजा अपने-अपने शिविरों को लौट आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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