महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
52.देवराज की भूल
इस समय न तो दिन है, न रात। इस सुअवसर से लाभ उठा लूं। यह सोचकर इन्द्र ने वृत्रासुर पर आक्रमण कर दिया। दोनों में काफी देर तक युद्ध होता रहा, पर हार-जीत का निर्णय न हो सका। अंत में वृत्र ने कहा- "अरे अधम! अपने उस वज्र का मुझ पर प्रहार क्यों नहीं करता जिसका वार कभी ख़ाली नहीं जाता। सुना है तेरे शस्त्र में स्वयं हरि ने प्रवेश किया है। उसी का वार कर न, जिससे मैं सद्गति को तो प्राप्त करूं।" यह कहकर वृत्र ने हरि का ध्यान किया और स्तुति करने लगा। हरि का ध्यान करते हुए वृत्र पर देवराज ने अपने वज्र से प्रहार किया और उसका दाहिना हाथ काट दिया। किंतु वृत्रासुर इससे विचलित नहीं हुआ। अधिक उत्साह के साथ बायें हाथ में एक मूसल लेकर उसने इन्द्र पर आघात किया। तब इन्द्र ने उसका बायां हाथ भी काट डाला। दोनों हाथों के कट जाने पर वृत्र ने मुंह खोलकर इन्द्र को एकदम निगल लिया। यह देख देवता लोग चौंक पड़े और शोर मचाने लगे। परंतु इन्द्र मरे नहीं। वृत्र का पेट चीरकर बारह निकल आये। उन्होंने मंत्र पढ़कर समुद्र के फेन में ही वज्र का आह्वान किया और वही फेन वृत्रासुर पर चला दिया। ठीक उसी समय भगवान विष्णु ने उस फेन में प्रवेश किया और वृत्रासुर मृत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सारा संसार जो इस लगातार होने वाले युद्ध से पीड़ित था, वृत्रासुर के मारे जाने से बड़ा खुश हुआ। पर इन्द्र के मन में शांति नहीं थी। एक तो ब्रह्म-हत्या का पाप उन पर पहले से ही था दूसरे प्रतिज्ञा-भंग करके वृत्र को जो मारा, उससे भी वह तेज-विहीन हो गये थे। अपमान एवं पाप का बोझ उनके लिये असह्य हो उठा। वह बहुत लज्जा अनुभव करने लगे और किसी को मुंह दिखाने योग्य न रहे। इस कारण अदृश्य होकर छिपे-छिपे रहने लगे। राजा के बिना प्रजा नहीं रह सकती। राजा से मतलब किसी एक व्यक्ति-विशेष से ही नहीं होता, बल्कि किसी भी राजवंश या राज-काज करने वाली संस्था से भी हो सकता है। देवराज के अदृश्य हो जाने से देवता और ॠषि-मुनि उदास हो गये। मर्त्यलोक के राजा नहुष बड़े प्रतापी, रण-कुशल और शीलवान थे। देवताओं और ऋषियों ने उन्हीं के पास जाकर प्रार्थना की कि इस समय आप इन्द्र का पद स्वीकार करें और हमारे अधीश बन जायें। नहुष स्वभाव के बड़े नम्र थे। ऋषियों और देवताओं की प्रार्थना सुनकर बोले- "मुझमें इतनी सामर्थ्य कहाँ कि मैं आप लोगों की रक्षा कर सकूं। मेरी और इन्द्र की तुलना ही क्या?" पर देवताओं ने आग्रह करके कहा- "हमारी तपस्या का सारा फल आपको प्राप्त हो जायेगा। इसके साथ ही जिस पर भी आपकी दृष्टि पड़ेगी उसी का तेज आपको मिल जायेगा। इससे आप बड़े शक्ति संपन्न हो जायेंगे। आप स्वर्ग में पधारिये और देवराज के पद को सुशोभित कीजिए।" इस पर नहुष ने ऋषियों और देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर ली। तात्पर्य यह कि क्रांति कोई नई बात नहीं हैं। इस पौराणिक आख्यान में यह बताया गया है कि देवलोक में भी क्रांति हुई और देवताओं ने इन्द्र को सिंहासनच्युत करके नहुष को देवराज बना दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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