महाभारत कथा -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
37.‘मैं बगुला नहीं हूं’
कौशिक द्वार पर ही खड़े रहे। जब उसी स्त्री का पति भोजन कर चुका तभी कौशिक के लिए वह भिक्षा लाई। भिक्षा देते हुए उसने कौशिक से कहा- "महाराज, आपको बहुत देर ठहरना पड़ा, क्षमा कीजिएगा।" स्त्री की अपने प्रति की गई इस लापरवाही के कारण कौशिक क्रोध के मारे प्रज्वलित अग्नि-से मालूम पड़ रहे थे। बोल उठे- "देवी! मुझे और बहुत घरों में जाना है। यह तुम्हारे लिए उचित नहीं था जो तुमने मुझे इतनी देर तक ठहराये रक्खा।" स्त्री ने कहा- "ब्राह्मण श्रेष्ठ! पति की सेवा सुश्रूषा में लगी रही, इसी कारण कुछ देर हो गई, उसके लिए मैं क्षमा चाहती हूँ।" कौशिक को अपनी दृढ़ व्रतता और जीवन की पवितत्रा का बड़ा घमंड था। वह उस स्त्री को उपदेश देने लगे- "देवी! माना कि पति सेवा टहल करना स्त्री का धर्म होता है, किन्तु ब्राह्मण का अनादर करना भी तो ठीक नहीं। मालूम होता है तुम्हें अपने पतिव्रता होने का बड़ा घमंड है।" स्त्री ने विनीत भाव से कहा- ‘नाराज न होइए। अपने पति की सुश्रूषा में रहने वाली स्त्री पर कुपित होना उचित नहीं। आपसे प्रार्थना है कि मुझे पेड़ वाला बगुला समझने की गलती न कीजिएगा। आपका क्रोध पति की सेवा में रत सती का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं बगुला नहीं हूँ।" स्त्री की बातें सुनकर ब्राह्मण कौशिक चौंक उठे। उन्हें बड़ा अचरज हुआ कि इस स्त्री को बगुले के बारे में कैसे पता लगा? वह आश्चर्य ही कर रहे थे कि इतने में वह बोली- "महात्मन! आपने धर्म का मर्म न जाना। शायद आपको इस बात का भी पता नहीं कि क्रोध एक ऐसा शत्रु है जो मनुष्य के शरीर ही के अंदर रहते हुए उसका नाश कर देता है। मेरा अपराध हो तो क्षमा करें। आपके लिए उचित है कि आप मिथिलापुरी में रहनेवाले धर्मव्याध के पास जाकर उनसे उपदेश ग्रहण करें।" ब्राह्मण विस्मित होकर बोले- "देवी! आपका कल्याण हो। आप मेरी जो निन्दा कर रही हैं, मेरा विश्वास है कि मेरी भलाई के लिए है। मैं अवश्य मिथिला जाऊंगा और धर्मव्याध से उपदेश ग्रहण करुंगा।" यह कहकर कौशिक मिथिला नगरी को चल पड़े। मिथिला पहुँचकर कौशिक धर्मव्याध की खोज करने लगे। उन्होंने सोचा कि जो महात्मा मुझे उपदेश देने योग्य हैं वह अवश्य ही कहीं किसी आश्रम में रहते होंगे। इस विचार से कितने ही सुन्दर भवनों और सुहावने बाग बगीचों में ढूंढा; पर कौशिक को धर्मव्याध का कोई पता न चला। अंत में एक कसाई की दुकान पर पहुँचे। वहाँ एक हट्टा-कट्टा आदमी बैठा मांस बेच रहा था। लोगों ने उन्हें बताया कि वह जो दुकान पर बैठे हैं वही धर्मव्याध हैं। ब्राह्मण बड़े कुत्सित भाव से नाक भौंह सिकोड़कर दूर ही पर खड़े रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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