नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. बुआ नन्दिनी-षष्ठी महोत्सव
मैं मैया से कुछ कहने गयी तो चौंक गई। वहाँ तो सब गोप बैठे कोई मन्त्रणा कर रहे थे। कोई कह रहा था- 'कंस बड़ा क्रूर है।' 'आज इस मंगल के अवसर पर इस कंस की चर्चा क्यों?' मेरे मन में धुकपुकी मची और मैं खड़ी-खड़ी सुनने लगी। 'कंस को किसी को भी अकारण कष्ट देने में कोई संकोच नहीं होता। वह सिंहासन पर बैठने के पश्चात से वृष्णिवंशियों का शत्रु हो गया है। किसी-न-किसी बहाने उन्हें उत्पीड़ित ही करता रहता है।' यह वृहीत्सानु से आये श्रीवृषभानुजी बोल रहे थे, यह मैंने सुन लिया। 'वह ऋषि-मुनियों का, ब्राह्मणों का विरोधी है। उसके अनुचर विप्रों के आश्रम नष्ट करने में लगे हैं और गोकुल में-इसके आस-पास बहुत अधिक ऋषि-मुनि इन थोड़े दिनों में आ बसे हैं।' मेरा हृदय धड़कने लगा। अब क्या इन मुनियों को आश्रय देना भी अपराध हो गया? भैया इन्हें विदा कैसे कर सकेंगे। ऋषियों को चले जाने के लिये कोई भी कैसे कहेगा? वे यहाँ हैं, यह अहोभाग्य! 'कंस को यह सब विदित ही होगा। वह गोकुल से प्रसन्न नहीं होगा; किंतु उसे कोई बहाना नहीं मिलना चाहिए। उसका वार्षिक कर उसे अवश्य देते रहना चाहिए।' मेरा हृदय यह सुनकर कुछ शान्त हुआ कि कंस ने कोई उपद्रव नहीं उठाया है। 'अबतक तो मैंने राजा को कर देने की कभी चिन्ता नहीं की।' भैया ने कहा- 'किन्तु अब वह आ गया है, जिसके लिये चिन्ता की जानी चाहिए। उसके जन्म-दिवस की भेंट भी दी जानी चाहिए राजा को।' 'आपको और गोप-प्रमुखों को भी स्वयं जाना चाहिए। मैं तो समझता हूँ कि कल प्रात: ही आप सब मथुरा जावें।' वृषभानुजी ने कहा। |
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