नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. धात्री मुखरा-जन्मोत्सव
मैं भागकर देखने जा रही थी पर महर्षि ने मुझे रोककर पूछा- 'इसके अग्रज तो स्वयं भगवान अनन्त हैं। वे वहाँ थे?' 'दाऊ तो वहीं था।' मैंने बतलाना प्रारम्भ किया और मेरा यह दोष तो है ही कि मैं पूरी बात कहे बिना नहीं मानती। मैंने बहुत बच्चे उत्पन्न कराये हैं, पाले हैं। रोहिणी रानी से, सबसे मैं सदा कहती थी कि दाऊ गूँगा नहीं है, अपंग भी नहीं हैं; किंतु मुझ धाय की बात पर कोई ध्यान ही नहीं देता था। बालक की पहिचान करने में कहीं मुखरा से भूल हो सकती है। कल पता नहीं कब दाऊ उठा और अपने पलने से उतरकर प्रसूति-कक्ष में आ गया। रोहिणी रानी तो व्यस्त थीं। इस बच्चे की ओर तो तब सबका ध्यान गया, जब यह अपने नव-प्रसूत अनुज के समीप शय्या को पकड़ कर खड़ा हो गया और हँसने लगा। यह उसे देखता था और सिर हिला-हिलाकर हँसता था। इतना हँसता रहा जैसे पूरे वर्ष की रोकी सब हँसी अभी पूरी कर लेगा। यह तो अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से धीरे से छूता था शिशु को और कहता था- 'उठ! फिर हँसने लगता था। अब यह अपने नवजात अनुज का साथ ही नहीं छोड़ना चाहता। इसके हँसने, बोलने, स्वयं उठकर चलने-से तो सबका आनन्द शतगुणित हो गया है। तभी तो व्रजराज ने जब जाकर कहा- 'भाभी! आज तो यह उदासीनता का वेश बदल डालो!' तो एक बार भी रोहिणी रानी ने अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने सर्वाभरण सजा लिए अपने स्वर्णगौर सुन्दर अंगों में और ऐसी साड़ी धारणी की है जैसे वे नववधू हो गयी हैं। आज के महोत्सव की व्यवस्था भी तो उन्हीं को करनी है। मैं पता नहीं कितना बता देना चाहती थी; किंतु महर्षि ने संकेत से रोककर सुनाया- 'इसके बुध, शनि, मंगल, चन्द्र और गुरु ये पाँच ग्रह उच्च के हैं। शुक्र स्वगृही है और शनि के साथ शत्रु भवन में बैठा है। शत्रुओं का संहारक होगा यह। तृतीय में राहु सर्वविघ्न-वारक होता ही है और नवम का केतु-मोक्ष तो इसके स्मरण से प्राणियों को प्राप्त होगा। यह सौन्दर्य का, श्री का, सुयश का अनन्त धाम अपने सुह्रदों का सब प्रकार कल्याण करेगा। सूर्य स्वगृही है सुख भवन में।' |
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