नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. भास्वरा भाभी-मां रोहिणी मथुरा को
'जीजी, ऐसा मत कहो!' व्रजेश्वरी ने मुख पर हाथ धर दिया। 'देवकी माता हैं; किंतु उन्हें क्या पता कि उनके नीलमणि की रुचि कैसी है। वह कितना संकोची है, तुम जानती हो। भूखा रहेगा; किंतु किसी से कुछ कहेगा नहीं। उसे कब क्या चाहिये, यह वहाँ कोई भी नहीं जानती। तुम वहाँ रहोगी तो मुझे यह सुख तो रहेगा कि नीलमणि की सुविधा समझने वाली उसकी माँ उसके समीप हैं। वह तुमसे संकोच नहीं करेगा। जीजी, नीलमणि के लिये तुम्हें मथुरा जाना चाहिये। मेरा मुख देखो, मेरे नीलमणि के लिए मथुरा जाओ।' रानी माँ के नेत्रों में अश्रु-प्रवाह मैंने पहिली बार देखा। व्रजेश्वरी मैया को हृदय से लगाकर वे कितनी देर सिसकती रहीं। बहुत देर में अपने को स्थिर कर सकीं और तब बोलीं- 'बहिन, तुम्हारी बात ही उचित है। रोहिणी के ललाट में सृष्टिकर्त्ता ने तुम्हारे सामीप्य का सुख नहीं लिखा। सब सुखी हों- मुझे नीलमणि के लिए मथुरा रहना चाहिये।' सारथि को उन्होंने कह दिया कि प्रातः प्रस्थान करेंगी। मुझे अंक में लेकर बार-बार समझाती रहीं कि मुझे कब क्या करना है; किस सेवक-सेविका अथवा सम्बन्धी के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिये। किन विशेष अवसरों के लिए क्या-क्या करना आवश्यक होता है। कितने पदार्थ कहाँ हैं भवन में अथवा आवश्यकता होने पर कहाँ से प्राप्त होते हैं। रानी माँ का यह विवरण समाप्त नहीं होना था; किंतु अवकाश कहाँ था। हमारे यहाँ और बरसाने में सभी को तो मिलना था। रानी माँ के स्नेह ने सबको ही अपना कर रखा था। वे सभी की अपनी थीं। किसी अपने घनिष्ठ स्वजन को इस प्रकार विदा करना- पता नहीं पुनः कब मिलना हो कितना कष्टप्रद होता है? सब बड़े-बूढ़ों को वृद्धाओं को, ऋषि-मुनियों को और विप्रपत्नियों को भी रानी माँ से मिलना था। सबको वे सम्मानित करतीं रहीं। सबकी यथोचित अभ्यर्थना करती रहीं। सबको उनके आने के पश्चात् कल व्रजेश्वरी ने मुझे लेकर उचित उपहार अर्पित किये। सबके आर्शीवाद, सबके उपहार सविनय स्वीकार किये माँ ने। मेरे स्वामी और उनके सब सखा रानी माँ के बालक हैं। सबको अंक में लेकर माँ को कल समझाना था। सबके अश्रु पोंछने थे अंचल से। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। सब माँ की गोद में मुख छिपाकर केवल रुदन करते थे। |
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