नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
82. विप्रपत्नी ऋतम्भरा-बाबा लौटे
'महर क्या कहते हो तुम?' यशोदा के नेत्र, स्वर सब उन्मादिनी के समान हो गये- 'नीलमणि नहीं आया और तुम लौट आये? तुम्हारा हृदय फट नहीं गया वहीं?' यशोदा के मुख से ऐसी वाणी? जीवन में यह नन्दगृहिणी स्वामी के सम्मुख ऊँचे स्वर से भी बोल नहीं सकी। व्रजेश्वरी की किसी बात का प्रतिकार करने में जिसका कण्ठ सदा अवरुद्ध रहा, वह इतनी कठोर वाणी बोल गया? मैंने सिर पीट लिया कि अवश्य यह उन्मादिनी हो गयी। अब इसे सावधान करना सम्भव नहीं रहा। यह कहीं अन्तःसंज्ञा में भी सचेत होती तो ये शब्द इसके मुख से निकल नहीं पाते। 'महर, मैं वहीं मर गया होता। अब भी मरण मुझे सुख ही देगा, किंतु नीलमणि ने कहा है कि वह आवेगा। नन्दराय वहीं भूमि पर बैठ गये। काँपते स्वरों में बोले- 'वह आवेगा और मुझे, तुमको नहीं पावेगा तो उसकी क्या दशा होगी? वह अपने कमलदल विशाल लोचनों में अश्रु भर-भरकर हिचक-हिचककर रोवेगा! वह सिर पीटेगा और .........।' 'मत कहो-मत कहो यह सब महर! मैं नहीं सह सकती।' यशोदा ने पति के मुख पर अपना हाथ रख दिया- 'मुझे क्षमा करो! मैं मूर्खा दासी हूँ तुम्हारी। तुम जीवित रहो, मैं जीवित रहूँगी। जो कहोगे करूँगी; किंतु नीलमणि को रुदन न करना पड़े। उसके नेत्रों में अश्रु न आवें।' 'हाँ- महर, यही सोचकर मैं लौट आया।' नन्दराय ने काँपते स्वर में कहा- 'हम दुःख से क्षीणकाय, खिन्न, उदास भी रहे तो वह दुःखी होगा। वह किसी दिन, किसी पल आ सकता है। उसने कहा है कि आवेगा। उसे यहाँ आकर प्रसन्नता प्राप्त होनी चाहिये- हमको अब ऐसे रहना है।' 'तुम सबने भी सुन तो लिया ही।' बालिकाएँ सब खड़ी थीं मेरे साथ। उनकी ओर मुख उठाकर नन्दराय ने कहा- 'उसे आने पर बहुत दुःख होगा यदि तुम्हें वह असज्जिता दुर्बल-देहा, कान्ति-हीना देखेगा!' और कुछ सुन पाना किसी-की शक्ति में नहीं था। यशोदा पकड़कर नन्दराय को अन्दर चलीं तो बालिकाएँ सिसकती विदा हुईं। मैं भी रुद्ध कण्ठ रोती अपने गृह आ गयी। |
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