नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गायत्री-केशी-क्रंदन
मेरी दृष्टि केशी पर ही लगी थी। व्रज में वह बड़े प्रातःकाल, सूर्योदय के तनिक ही पीछे पहुँचा। अवश्य इस असुर को श्रीनन्दनन्दन के करों से मोक्ष ही मिलना है। मरण के लिये इसे यह फाल्गुन कृष्ण एकादशी पुण्यकाल प्राप्त हुआ है और अब तो मैं निश्चित जानती हूँ कि इसे क्षण तिथि भी एकादशी ही प्राप्त होनी है। व्रजधरा तो इसे प्राप्त हो ही गयी है। असुर होकर भी धन्य है यह। स्वर्ग में बना भी रहता- सुरेन्द्र का सेवक ही तो था। शक्र का शाप इसके लिये सद्गतिदाता वरदान बन गया। सर्वेश्वरेश्वर स्वयं इसे सद्गति देंगे। अपने खुरों से मानों सम्पूर्ण भूमि खोदकर धर देगा, इस वेग से केशी आया। देवताओं के गगन में स्थित विमान इसके सटाघात से अस्त-व्यस्त हो उठे। इसके हींसने के भयानक शब्द से संत्रस्त देवता के भागने लगे। कज्जल-कृष्ण पर्वताकार शरीर, विशाल नेत्र, भयानक कन्दरोपम खुला मुख, लम्बी गर्दन, साक्षात यमराज का वाहन महिष जैसे आज अश्व बन गया हो। गोप भागे पथ में-से। सब पुकारने लगे- 'नर-भक्षी अश्व आ गया! भागो! भाग जाओ मार्ग में-से, भवनों में भागो! द्वार बन्द करो!' गोपों ने छूटे पशु पुनः गोष्ठों में हाँककर बन्द किये और पशु भी भयाक्रान्त चिल्लाने लगे; किंतु केशी चाहे जितना भूखा हो, भूल नहीं कर सकता। यह किसी ओर- किसी की ओर देखता नहीं है। इसे बालक चाहिये- कंस का बताया पीतवसन, मयूरमुकुटी, तमालनील बालक। केशी नन्दव्रज की वीथियों में प्रचण्ड वेग से दौड़ रहा है। हिनहिनाता उसी बालक को ढ़ूँढ़ता दौड़ रहा है। पथ पर कोई बालक नहीं दीखता। बालक सब नन्द-भवन पहुँच गये हैं। गोपों ने पशुओं को पुनः गोष्ठों में अवरुद्ध कर दिया है। केशी दौड़ रहा है, दौड़ता जा रहा है। कोई बालक उसे कहीं दीखता नहीं है। श्रीव्रजराजकुमार सखाओं के साथ कलेऊ कर चुके हैं। मैया ने श्रृंगार कर दिया है। अब गोचारण के लिए निकलने ही वाले हैं। 'यह लकुट उठाने से पूर्व अश्व की हिनहिनाहट कैसी? यहाँ किसका अश्व आया? यह तो असाधारण उग्रतम हेषित है?' कुतूहलवश कृष्णचन्द्र भवन में-से दौड़कर पथ पर आ गये। गोपों ने पुकारना प्रारम्भ किया- 'कृष्ण! दूर भागो! भागो श्यामसुन्दर! यह भयानक मानवभक्षी असुर अश्व है! दूर भागो! भागो भवन में!' |
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