नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
76. राहु-शंखचूड़-वध
शंख-चूड़ अपनी महागदा कन्धे पर उठाये अपने मित्र कंस से मिलने मथुरा आया था। उदास-भयाकुल कंस; किंतु शंखचूड़ कोई आश्वासन देने की स्थिति में नहीं था। वह जानता था कि यक्षेश्वर वैश्रावण अलका में उसे पद नहीं रखने देंगे, यदि उसने श्रीकृष्ण का विरोध किया। जिसने शैशव में ही पूतना, उत्कच, तृणावर्त, बत्सासुर, बकासुर, प्रलम्ब, अघासुर आदि सुरासुरजयी राक्षसों को यमसदन भेज दिया, उससे पराक्रम प्रकट करने का साहस शंख-चूड़ में नहीं था। कंस को वह केवल इतना कह सका- 'वृन्दावन होकर जाऊँगा। देखूँगा कि आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ अथवा नहीं।' मुमुषु शंख-चूड़ नहीं जानता; किंतु मैं तो गगन से स्पष्ट देखता हूँ कि महामहेश्वरी योगमाया व्रज में प्रवेश करने की अनुमति सुरों को भी नही देतीं। केवल दानवेन्द्र मय को उनके सद्भाव के कारण जाने दिया गया। अन्यथा यदि कोई दुर्भाव लेकर व्रज की ओर चलता है, यदि योगमाया उसका पथ अवरुद्ध नहीं करतीं तो सुनिश्चित हो गया कि अब वह संसार में लौटने वाला नहीं है। उसके समुद्धार का समय आ गया। वृन्दावन नित्य भव्य-यक्षेश्वर का अपना सौगन्धिक वन भी यहाँ की श्री की समता नहीं कर सकता और अब तो बसन्त का माधव[1] मास वृन्दावन में अपना पूर्ण प्रभाव प्रकट कर रहा है। तरु-लताओं में पत्रों को पुष्पों के मध्य लक्षित करना पड़ता है। इस वनश्री ने ही यक्ष शंख-चूड़ को उन्मत्त प्राय कर दिया। यह चकित-थकित इतस्ततः देखने-भटकने लगा। अनन्त प्रभु नील-वसन, एक कुण्डल धर, स्वर्ण गौर संकर्षण अपने अनुज मयूर मुकुटी घनश्याम, पीताम्बर, वनमाली के साथ पूर्णिमा की इस प्रकाशमयी रजनी में ज्योत्स्ना का महामंगल मनाने वन में आ गये थे। दोनों के यूथों की गोपकुमारियाँ साथ आ गयी थीं। वृन्दावन वसन्त महाराज महोत्सव में झूम रहा था। पूर्णिमा की रात्रि- मैं कहीं समीप भी होता तो शशि को मुझसे ग्रस्त होने का कोई भय नहीं था। श्रीनन्दनन्दन की रस–क्रीड़ा में व्याघात बनने का साहस राहु में नहीं है। यह छायासुत अपनी काली छाया शशांक से सम्हाल कर दूर रखेगा। ब्रज-सुन्दरियों में किञ्चित मान आ गया। उनमें-से एक ने कहा- 'तुम दोनों ही भाई एक से हो। हम नहीं बोलतीं तुमसे। श्रीसंकर्षण के ही यूथ की कोई थी। श्यामसुन्दर से परिहास का स्वत्व उसका। यह लीलामय भी हँसे- 'दादा! तू आ। मैं तेरा श्रृंगार करूँगा। मैं तुझे सज्जित कर दूँ तो देखूँ कि यह भाभी मान किये मौन रह पाती है?' उसकी सखियाँ ही नहीं, सभी खिलखिला कर हँस पड़ीं। उनका मुख लज्जा से लाल हो गया। वह संकोच के कारण ही एक ओर चली गयी तो सब उसके साथ चली गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज