नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
72. कामदेव-रास का प्रारम्भ
वंशी से स्वर ने पुकारना प्रारम्भ कर दिया। वंशी क्रमशः अनेक-अनेक नारियों का नाम पुकारने लगी। मुझे साहस हुआ- यह अपनी प्रेयसियों को पुकार रहा है तो अब मुझे अवसर मिलेगा। यह इस एकान्त में- इस उद्दीपक वातावरण में उन्हें बुला रहा है तो मेरे सम्मोहन से अस्पृश्य नहीं रह सकता। कुतूहलवश मैंने गगन से देखा समीप के जनपद की ओर। सहस्र-सहस्र नारियाँ दौड़ पड़ी थीं। वे किशोरियाँ- मैं मूर्ख था जो अब तक अप्सराओं को साथ न लाने के कारण खिन्न हो रहा था। इनमें-से एक-के सौन्दर्य का सहस्रांश भी तो स्वर्ग की किसी सुन्दरी में नहीं। मेरे अदृश्य करों से कब मेरा सुमन-धनुष छूट गिरा, मुझे स्वयं पता नहीं। मैं धनुष का करता क्या? मेरे किसी शर में यह शक्ति, यह सम्मोहन, यह तीक्ष्णता नहीं जो इनमें से प्रत्येक के कटाक्षपात में है। इनकी उपस्थिति में मन्मथ को किसी का मनोमन्थन करने के लिये शर-सन्धान कहाँ आवश्यक है। यहाँ तो मेरे पञ्च बाण व्यर्थ हैं। सब अस्त-व्यस्त भागी आ रही थीं। किसी ने गोदोहन करते दोहनी पटक दी थी और किसी ने दूध को अग्नि पर उफनता त्याग दिया था। अनेक अपना श्रृंगार कर रही थीं- एक नेत्र में अञ्जन, एक चरण में नूपुर अथवा पदाभरण कर या कर्ण में डाले वे दौड़ी आ रही थीं। अनेक ने पदों में अलक्तक लगाना प्रारम्भ किया था। आर्द्र अलक्तक के पद-चिह्न वे धरा पर बनाती आ रही थीं। किसी का उत्तरीय गिर पड़ा था। किसी का वेणी-ग्रन्थन अपूर्ण था। कोई पति-पुत्र या भाई को भोजन कराती वैसे ही अन्न सने कर आ रही थी। अनेक ने अपने अंक के शिशु को दुग्धपान कराना छोड़कर शिशु को भूमि पर ही डाल दिया था। जो जैसे- जिस अवस्था में थीं, वैसे ही वंशी का स्वर सुनते ही दौड़ पड़ी थीं। इनका यह अस्त-व्यस्त शरीर, वस्त्र, आभरण, केश इनको और भी अधिक मनोहारी- मादक बना रहे थे। 'अरे कहाँ जा रही है? इस समय वन में मत जा!' अनेकों के पतियों, पुत्रों, पिताओं अथवा भाइयों ने उन्हें रोका। पुकारा; किंतु किसी-के भी श्रवण में तो वंशी के स्वर के अतिरिक्त और कुछ सुनने की शक्ति नहीं। मैं अपने उन्मादक प्रभाव से परिचित हूँ; किंतु इतना अपरिसीम प्रभाव- इसकी तो मैं भी कल्पना नहीं कर सकता। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज