नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
7. चन्द्रदेव-बाबा-मैया का परिचय
सृष्टिकर्त्ता के भ्रम का यही कारण है। वे समझते हैं कि गोकुल में वसुश्रेष्ठ द्रोण नन्दराय हुए हैं और गोपराज गिरिभानु[1] की पत्नी पद्मावती[2][3] से प्रकट कन्या यशोदा-नन्दपत्नी धरा हुई हैं। नित्य गोलोक-बिहारी के नित्यबाबा और मैया को भी तो पृथ्वी पर आना चाहिए, जब उन साक्षाद्गोकुलेश्वर को आना है। श्रीनन्दराय में द्रोण ने और यशोदा में धरा ने एकत्व प्राप्त कर लिया। अब उन्हें परात्पर परमपुरुष पुरुषोत्तम का पितृत्व-मातृत्व तो मिलना ही है, श्रीनारायण के अंशोद्भव वासुदेव को भी उन नन्दनन्दन से एक होकर रहते हुए अपना वरदान तथा इनकी तपस्या का संकल्प सत्य करना है। यही बात बहत्सानुपुर[4] के सम्बन्ध में भी है। पूर्वजन्म में मनुवंशी सुचन्द्र का विवाह पितरों की मानसी कन्या कलावती के साथ हुआ। भगवती पार्वती की माता मैना की इन महिमामयी बहिन के साथ दीर्घकाल तक राज्य करने के पश्चात सुचन्द्रजी पुलहाश्रम में तप करने चले गये। भगवान ब्रह्मा इनके तप से सन्तुष्ट होकर ब्रह्मलोक से उतरे। उनमराल वाहन ने कहा- 'वरदान मांगो।' 'प्रभु! आप प्रसन्न हैं तो मुक्ति प्रदान करें!' सुचन्द्र ने मांगा- 'प्राणी का परमपुरुषार्थ तो यहीं है।' 'पति ही नारि का सर्वस्व है!' कलावती ने अत्यन्त आर्त होकर प्रजापति से कहा- 'आप यदि इन्हें कैवल्यमुक्ति देते हैं तो मेरा क्या होगा? मैं तो इनके चरणों से पृथक रह नहीं सकती और न मेरी कैवल्य में रुचि है। मैं इनसे एक होना नहीं, इनका नित्य सान्निध्य चाहती हूँ। अत: आप सोचकर इन्हें वरदान दें। आपने इन्हें मोक्ष का वरदान दिया तो मैं आपको शाप दूँगी।' 'देवी!' आपका शाप मुझे भी भ्रष्ट कर सकता है यह जानता हूँ।' ब्रह्माजी ने कहा- 'वैसे भी मैं कैवल्य देने में समर्थ नहीं हूँ। मैं रजोगुण का अधिष्ठिाता-केवल कल्पान्त में ज्ञानोपदेश का अवकाश पाता हूँ। अत: सुचन्द्रजी को कोई दूसरा वरदान मांगना चाहिए।' 'तब मैं मांगना नहीं चाहता!' मानधनी महाराज ने सुचन्द्र ने कहा- 'आपको मुझे कुछ बनाना ही है तो मुझे ऐसा बनाइये कि मैं निखिल लोक महेश्वर को भी दे सकूँ! उनका परमाभीष्ट प्रदाता बनूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुमुख
- ↑ पाटली
- ↑ एक व्यक्ति के अनेक नाम पहिले होते थे। ग्रन्थान्तरों में आये इन भिन्न-भिन्न नामों को कल्प-भेद के नाम भी मान सकते हैं।
- ↑ बरसाना
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