नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
7. चन्द्रदेव-बाबा-मैया का परिचय
वृहत्सानुपुर में सुरभानुजी[1] की पत्नी पद्मावती से वृषभानु प्रकट हुए तो उन नित्य के श्रीविग्रह में सुचन्द्र ने तादात्म्य स्थापित कर लिया। कान्यकुब्ज नरेश भलन्दन के यज्ञ कुण्ड से वृषभानु की नित्य प्रिया देवी कीर्तिदा प्रकट हुईं।[2] उनसे एक होने के कारण कलावती आयोनिजा बनी रहीं। अब यह तो सर्वविदित ही है कि अपने मित्र वृषभानु के लिए नन्दराय ने अपनी कौमारावस्था में ही कान्यकुब्ज पति से उनकी यज्ञ-कुण्डोद्भवा कन्या माँगी थी और व्रजपति पर्जन्य के कुमार की प्रार्थना स्वीकार करके कान्यकुब्ज नरेश ने वृषभानु को बुलाकर सविधि कन्यादान कर दिया था। अब तो व्रजधरा पर गोकुल में उन परमपुरुष के अग्रज भगवान अनंत अवतीर्ण हो चुके हैं। उनका परिकर आने लगा है। मेरा कुल-मेरा यह भुवन-भूषण कुल जो मुझे भी परमधन्य करता है, बढ़ रहा है। उन अनन्त के आविर्भाव के दो दिन पश्चात ही उपनन्दजी की पत्नी तुंगी की गोद पूर्ण हुई। इनके पुत्र का नामकरण हुआ ऋषभ। इसके ठीक सात दिन पीछे सन्नन्द की पत्नी कुबला के अंक में अर्जुन आया और उसके तीन सप्ताह के पश्चात अभिनन्दजी की पत्नी पीवरी का गृह पुत्र जन्मोत्सव से मुखरित हुआ। इस बालक का नाम विशाल, उसके आकार के अनुरुप ही था। व्रज में बालक आने प्रारम्भ हो गये थे और मेरे आनन्द की सीमा नहीं थी। सुरों की समझ में ही यह नहीं आता था कि मैं पृथ्वी पर के अपने कुल से तादात्म्य करके इतना प्रसन्न क्यों हो रहा हूँ किंतु यह बात मेरी समझ में भी कम आती है कि ये सब बालक प्राय: समान लग्न में ही कैसे उत्पन्न हो रहे हैं। वैसे मैं जानता हूँ कि इन नित्य-परिकरों का प्रारब्ध नहीं होता। ग्रह इनको प्रभावित नहीं कर सकते। ग्रहों को और काल को भी इनकी ही कृपा अपेक्षित है; किंतु सबको प्राय: समान जीवन व्यतीत करना है, अत: इन सर्वतन्त्र सत्पुरुषों ने लग्न की भी सार्थकता का अपने आगमन में ध्यान रखा है। इन दिनों चार ग्रह उच्च के और दो स्वगृही तो चल ही रहे हैं। केवल मैं चञ्चल हूँ और मैं कहीं भी रहूँ, अपने कुल के तो मैं सदा सानुकूल ही रहूँगा। मेरा सम्पूर्ण आशीर्वाद! समस्त सुधा-किरणें इन आये और आने-वाले शिशुओं के लिये! मुझे इनके नित्य सखा ने कुल पुरुष स्वीकार किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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