नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
48. ब्रह्मर्षि वशिष्ठ-वत्सोद्धार
सप्तर्षि बन जाने का दायित्व भी बड़ा होता है। असुर मुर का पुत्र प्रमील घूमते हुए एक दिन मेरे आश्रम पर आ गया। उसे मेरी होमधेनु नन्दिनी को देखकर लोभ लगा। इस कामधेनु के लोभ के कारण ही विश्वामित्र से मेरा विरोध हुआ था। असुर के मन में यह लोभ जागा तो आश्चर्य क्या। जानता था कि अस्त्र-बल और तप:शक्ति से सृष्टि करने की शक्ति पाकर भी गाधि-नन्दन इस धेनु का अपहरण करने में समर्थ नहीं हुए थे। अत: असुर को मेरे साथ बल-प्रयोग का साहस नहीं हुआ। उसने छल करने का निश्चय किया। मायावी दैत्य ब्राह्मण बनकर आया मेरे समीप और उसने याचना की- 'महर्षि! मैं अकिञ्चन दरिद्र ब्राह्मण आपकी होमधेनु की याचना करता हूँ। इससे मैं अपने परिवार का पालन करते हुए सुखपूर्वक साधन-रत रह सकूँगा। आप पूर्णकाम, धर्मज्ञ ब्रह्मपुत्र अतिथि को निराश नहीं करेंगे, इसी आशा से दूर से चलकर आया हूँ।' मुझे ध्यान करके तथ्य जानने की आवश्यकता नहीं थी। वत्स रामभद्र ने त्रेता में प्रथम बार जब मुझे प्रणाम किया था, बिना बोले यह दक्षिणा उसी समय दे दी थी कि कोई भी माया मेरी दृष्टि का आवरण बनने में असमर्थ हो गयी। मुझे तो असुर का ब्राह्मण-रूप पारदर्शी अत्यन्त अपदार्थ दीख रहा था। उसके आवरण में अवस्थित असुर को मैं स्पष्ट देख सकता था। लेकिन वह ब्राह्मण बनकर मेरे यहाँ आया था, अत: मैं सोचने लगा कि क्या कर्तव्य है ऐसी अवस्था में। मेरी नन्दिनी ने दो क्षण का भी मुझे अवकाश नहीं दिया। उसने शाप दे दिया- 'तू दैत्य होकर ऋषि की गौ का छल से अपहरण करने आया है, अत: गोवत्स बन!' |
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