नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
मैं कितना भी बड़ा श्रुति-शास्त्रों का विद्वान होऊँ, भगवती सरस्वती ने कितनी भी कृपा मुझ पर की हो, अज्ञानी ही था। ऐसा न होता तो गोपनायक सुमुख का पौरोहित्य त्यागकर इस एकान्त वन में आता; किंतु संतोष यही है कि पुत्र ने यह परम लाभ प्राप्त कर लिया है। परम पुरुष पुरुषोत्तम जिन्हें नानाजी कहकर सम्मानित करते होंगे, जिनकी क्रोड़ी में सोल्लास विराजमान होते होंगे, उन गोपनायक सुमुख का मुझे पौरोहित्य मिला था, अल्प पुण्य तो मेरे नहीं होंगे पूर्व जन्मों के। वही पुण्य थे कि मुझे वे बार-बार गोकुल जाने को प्रेरित करते थे और इस एकान्त में बैठने नहीं देते थे। मैं व्रजराज नन्दराय की श्रद्धा-स्नेह का स्मरण करके उनके यहाँ चार-पाँच वर्षों के अन्तर पर एक बार जाता रहा। मैं समझता था कि गोकुल के अधिपति मेरी कृपा के उचित अधिकारी हैं। उनके यहाँ जाकर मैं उन पर अनुग्रह करता हूँ। वे श्रद्धा के साक्षात विग्रह और शील, विनय, सेवा की मूर्त्ति उनकी सहधर्मिणी मेरे यजमान की कन्या यशोदा- मेरे आगमन को दोनों ने सदा अपना परम सौभाग्य माना। दोनों साश्रुलोचन, बद्धाञ्जलि बार-बार कहते थे- 'श्रीचरणों के अहैतुक अनुग्रह ने हमें पवित्र किया। श्रीचरण केवल कृपा करने पधारे, यह गृह पावन हो गया।' यह तो आज समझ सका हूँ कि मेरे अहैतुक कृपालु आराध्य की अनुकम्पा मुझे प्रेरित करती थी। व्रजपति का आतिथ्य मुझे उत्तरोत्तर निर्मल करता रहा और उसी का प्रताप है कि मैं उन पुरुषोत्तम के प्रसाद को प्राप्त कर सका। इस बार पाँच वर्ष के पश्चात गोकुल गया था। पहिले चला गया होता! किंतु पहिले चला कैसे जाता? सबका समय होता है। मैं जो नन्दराय के आतिथ्य को स्वीकार करने पहुँच जाया करता था, वह मेरी एकान्त आराधना का पुण्य परिपाक ही तो था। वह जब पूर्ण हुआ, तभी तो वहाँ पहुँचने की प्रेरणा अन्तर में उठी। महावन की सीमा में पहुँचते ही इस बार चमत्कृत हो गया। महावन मेरा अनेक बार का देखा था। परिचित था यह प्रदेश; किंतु वह अब कहाँ था। मैं तो दिव्यधरा, चिन्मय प्रदेश में पहुँच गया था। पशु-पक्षी, लता-पादप, भूमि का कण-कण, तृण-तरुओं के पत्ते-पत्ते से जो अलौकिक शान्ति, अतर्क्य आनन्द झर रहा था, वह तो समाधि में भी कभी सुलभ नहीं हुआ था मुझे। |
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