नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. विप्रर्षि कण्व
मुझे देखते ही गोपों ने भूमि में पड़कर प्रणिपात किया और दौड़े व्रजेश्वरी को सूचित करने। गोकुल का स्वरूप ही कुछ और हो गया था। गायें सबकी सब कामधेनु और गोप, गोपियाँ तो दूर, सेवक-सेविकाओं तक में इतना शील, इतना सौन्दर्य स्वर्ग में भी सुदुर्लभ है। मैंने देखा कुछ शिशुओं को। लगा कि किसी दिव्यलोक के दिव्य पुरुष बालवेश में आ गये हैं गोकुल में। मैं पथ में रुककर उनकी ओर देखने लगा मुग्ध होकर। एक गोप ने अञ्जलि बाँधकर सादर सूचित किया- 'आपके आशीर्वाद से गोपों के गृह इन बालकों के आगमन से आलोकित हो गये हैं इन दो-तीन वर्षों में। हमारे व्रजपति के यहाँ भी कुमार आ गया है। व्रज ने अपना युवराज पा लिया है।' नन्दराय के इस अवस्था में पुत्र हो गया है, यह जानकर मुझे आनन्द हुआ। मैं उनके भवन की ओर चला ही था कि वे आते दिखलायी पड़े। पथ में ही वे मेरे पदों में साष्टांग प्रणिपात करते गिर पड़े। मुझे लेकर अपने गोष्ठ में गये वे। वहाँ पहिले से सूचना मिलते ही देवी रोहिणी और यशोदा मेरे लिए आसन सज्जित करने तथा पूजा के उपकरण एकत्र करने में जुटी थीं। अर्घ्य, पाद्य, आचमन- अपने आराध्य की अर्चा ही कर रहे हों, इतनी श्रद्धा, सतर्कता से मेरी पूजा सदा नन्दराय के गोष्ठ में इसी प्रकार हुई है। इस बार इसमें देवी रोहिणी और सम्मिलित हो गयी थीं। मेरा चरणोदक तो नन्दराय पूरे गोकुल में सबको देते हैं, सब गृहों में सिञ्चित होता है, यह मैं जानता ही था। मैं किसी गृहस्थ के गृह में नहीं जाता, इस नियम को जान लेने के कारण नन्दराय ने कभी मुझसे अपने भवन में चलने का आग्रह नहीं किया। वे शील की मूर्त्ति हैं। मुझे संकोच होगा, इसी से यह प्रार्थना उन्होंने कभी नहीं की। मुझे गोष्ठ में ही वे ले जाते हैं; किंतु मैं देखता हूँ कि पथ में-से जहाँ मेरे पद पड़े हों, वहाँ की रज यशोदा भवन में समेट ले जाती हैं। उसे वे भवन में सर्वत्र छिड़कती होंगी। |
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