नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वृषभानु बाबा-सगाई
मैं नीलमणि के जन्म-दिन ही सगाई कर देना चाहता था। मैंने उसी दिन उसे अपना बना लिया। मैंने पूछ लिया था उसी दिन भाई नन्दरायजी से कि वे कब मेरी कनकलता-सी कन्या को अपने कुमार के लिए स्वीकार करेंगे? व्रजपति ने मुझे भुजाओं में भर लिया- 'इसमें भी पूछना आवश्यक है? यह तो आपका ही है।' नीलमणि पर दृष्टि पड़ी मेरी और हो गया- मेरी कन्या इसी के लिए है, इसी की है! इसमें कुछ कहने-सोचने को रह नहीं गया; किंतु नीलसुन्दर केवल सात दिन का था, तब पूतना गोकुल में आ धमकी। वह भले मर गयी; किंतु कंस की ओर से हम सबको सतर्क तो कर ही गयी। कंस की क्रूर दृष्टि है व्रजराज के कुमार पर, अत: मुझे सावधानी पूर्वक ही कुछ करना चाहिये। महर्षि गर्गाचार्य आ गये अकस्मात मेरे यहाँ। मैंने प्रार्थना की और उन कृपा-मूर्ति ने स्वीकार करके मेरे छोटे कुमार तथा कन्या का नामकरण कर दिया। भविष्य दर्शी से मैंने बहुत धड़कते हृदय से पूछा था कि मेरी कन्या का विवाह किससे होगा? भाग्य की लिपि मिटायी जानी अत्यन्त कठिन है; किंतु मैंने निश्चय कर लिया था- पूछा ही इसलिए था कि महर्षि कुछ और-कहीं अन्यत्र सम्बन्ध सूचित करते हैं तो मैं भाग्य के उस लेख को परिवर्तित करने के लिए जो कुछ करना पड़ेगा-करूँगा। मैं कितनी भी कड़ी तपस्या अथवा अनुष्ठान के लिए प्रस्तुत था; किंतु महर्षि ने तो मेरे मन की ही बात कही थी। 'नन्दतनय की नित्य संगिनी है आपकी तनया। महर्षि ने कहा था- 'इनका अनादि सम्बन्ध- इसमें व्यवधान बनने की शक्ति सृष्टि में है ही नहीं।' मैं धन्य-धन्य हो गया। मैंने प्रार्थना की थी कि महर्षि यह सम्बन्ध करा दें; किंतु उन्होंने मेरी यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की। महर्षि के शब्द मुझे स्मरण हैं; किंतु उनका तात्पर्य मैं समझ नहीं सका था। अब भी मेरी समझ में उनकी बात नहीं आती। उन्होंने कहा था- 'अनादि दम्पत्ति में विवाह की औपचारिकता आ नहीं सकती। इस अवतार-लीला में वह आवश्यक तो है; किंतु उसे स्वयं सृष्टिकर्त्ता सम्पन्न करेंगे और वह भी समाज के नेत्रों से परोक्ष ही रहेगी।' |
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